वाग्भट - विवेचन | Vagbhat-vivechan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ). ग्रन्थागार, मद्रास्‌ में है ।. बहुत पहले षं° हरिदतत शाली के प्रयाख से पंजाब के १० मस्तराम शाली ने इसे प्रकाशित किया था जो सम्प्रति उपलन्ध नहीं है । मद्रास वाली प्रति का मैने अध्ययन कर उसका एक विवरण सचित्र आयुर्वेद { मई, जन ६७ ) में प्रकाशित कराया था । उसमें वाग्भट का कहीं कोई संकेत उपलब्ध नहीं होता । भटरार एक सिद्धहस्त ` गधकवि भी ये जिसका निर्देश नाणभटर ने हषंचरित की प्रस्तावना में किया है। मेरा विचार है कि वैद्य और कवि भट्टार एक ही हैं। यह साहसांक के राजवेद्य थे ऐसी जनश्रुति-परम्परा है जिसका आधार महेश्वरकृत विष्वप्रकादकोश् का एक बचन है । यदि साहसांक से मालवा के यशोधर्मा को लिया जाय, जिसने ५३५ ई० मे हूणराज्‌ मिहिरकुक को परास्त कर देश का उद्धार किया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की, तो भंट्टवार का काल लगभग छटीं शती का पूर्वाधं ठहरता है। बराहमिहिर भी विकमादित्य के दरबार में राज-ज्योतिषी थे । यह विक्रमादित्य सम्भवत *यद्मोधर्मा ही था । वराहमिहिर ने वार्भेट के अनेक योगों को अपनी बृहत्‌ संहिता में उद्धृत किया है तथा और भी समानतायें हैं। उधर वाग्भट भी ज्योतिष के वातावरण से पुण प्रभावित प्रतीत होते हैं । अत: ऐसी संभावना हैकि ये दोनों समकालीन हों । वाग्भट जन्मत: सिन्धु प्रदेश के निवासी थे किन्तु ऐसा लगता है कि हृणों की पराजय के बाद तथा भट्टार' हरिचन्द्र की मृत्यु के बाद यशोधर्मा ने वाग्भट को अद्ननी सभा में राजवेंद्य के रूप में प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार लगभग ५५० ई० के वराहमिहिर तथा वाग्भट दोनों परस्पर संपक में आये । यह शातव्य है कि वराहमिहिर इसके बाद भी ३५ वर्षो तक जीवित ` रहे ओर अन्तिम काल में ही अपने समस्त शानकोद को अन्तिम रचनीा 'बृहंतु संहिता' में भर दिया जिसमें वाग्भट की देन. का भी उपयोग किया गया । ` अन्तःसाक्ष्यों के अध्ययन के प्रसंग में अनेक महत्वपूर्ण नवीन तथ्य प्रकाश मे अयिः है यथा :- १- देशो के प्रकरण में वाग्भट ने अवन्ति प्रदेश का उल्लेख कियादहै। ` इससे स्पष्ट है कि अवन्ति से उनका सम्बन्ध हो जब कि वह एक प्रसिद्ध प्रदेश रहा हो । कांजी करे लिए 'अवन्तिसोम' शब्द का प्रयोग हुआ है जो उस काल में वहां का प्रसिद्ध पेयः रहा होगा । २- राजनीतिक परिस्थितियों के अध्ययन से कौटल्य एवं कामन्दकीय ` नीति का प्रभाव . स्पष्ट माढूम होता है। एकं आच्वयजनक तथ्य यह सामने आया कि: अष्टांग-हृदय के. सदृवृत्त के लगभग पचास बलोक. अधिकल रूप में: शुक्रनीति में उपलब्ध होते हैं । | .“.




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