दत्तात्रेयवृत्तान्त | Dattatreya Vrittant

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Dattatreya Vrittant by स्वामी परमानन्द जी - Swami Parmanand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषाटीकासहिता । . (७४ ज्ञान भी हमार वही है भौर में ही व्यापकरूप आत्मा हैं और निराकार मी: ७5 हूँ अणु, हल, मध्यम भर दाध भादि जाकारोंसे रहित हैँ जौर सवमावे ६ ही में सर्वब्यापी भी हैं ॥ ५ ॥ ह यो वे सवीत्मको देवी निष्केलो गगनोपमः । स्वभावनिमेरः शुद्ध: स॒ पाई ने सशयः ॥4॥ | पदच्छेद यः, वे, सर्वात्मिकः देवः, विष्कः, गगनोप़मः । स्वशावनिर्भलः, शुरू), सेः, एप, अहम, न, संशयः ॥ पदाथ! । यःत्जें समाव-( - समावते ही निछ है। संवात्तिक + सर्वर निमहा। देव) ८ देव है शुद्ध! ८ शुद्ध ६ वे + निश्चय सएवं नसोई निश्चयकरके निष्क: # निरवयव हैं अहप ऋ%ें। हैँ की संशय सेशप इसमे नन्‍ूनहींहे। रे 1 भावाथ । शी ि दत्तात्रेयजी कहतेहं-णो सर्वर्य प्रकाशमान देव है सो निर्रयत है और क ह् 85. कि न गगन जो आकाश है उसको उपमावाला भी है अथीत्‌ जैसे जाकाश किसी प्रकाप्ते भी चढायमान नहीं होता चैसे बह देवमी अथोत्‌ प्रवोीशलरू5 ५ ३ ४8 कक ४७ एच बन्छ ् र्‌ ब्रह्म भी यठायमान नहीं होताहै और सखवभावते ही वह निर्मल है स्व: ञः 1 है धोई निर्मल शुद्न वेतन अब में हूँ इसमें किसी प्र भी शुद्ध मी है सोई वि शुद्न चेतन अहम में हूं इतने किसी प्रकारा संदेह नहीं है ॥ ६ ॥ दीन करू ३ कमेगह 4 ; अदमवाव्यया[नन्तः शुद्दविज्ञा्ननिप्रह | हे मुख दुःख न जानामि के कस्यापि वतेते ॥७ ग़गने।-( :+ भाकाशकी तरह डील पके) है




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