सोलह सती | Solaha Sati

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Solaha Sati by अगरचन्द भैरोदान सेठिया - Agarchand Bhairodan Sethiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चन्दन गला म्१ शतानीक में चम्पा का राज्य लेने की भावना दृढ हो चुकी थी और दधिवाहन में गथासम्भव हिंसा न होने देने की। राजऊर्मचारी तथा प्रजानन द्वारा क्री गई प्रार्थना पर बिना भ्यान दिए दधिवाहन राजा घोडे पर सवार होकर शतानीऊ के पाम जा पहुँचे | उन्हें अफेला आया देख फर शतानीक बहुत प्रसन हुआ। उसका अमिमान और पद गया। सोचने लगा-दधिवाहन डर फर मेरी शरण में चला आया है। शतानीऊ के पास पहुँच कर दधियाहन ने ऊहा-महाराज ! हम दोनों में मित्रतापूर्ण सन्धि है। आप मेरे सम्बन्धी भी हैं आज तक हम दोनों का पारस्परिक व्यवहार प्रे मपूर्ण रहा है। मेर सयाल में हमारी तरफ से ऐसी ऊोई बात नही हुई जिससे आपको किसी प्रकार की हानि हुई हो फिर भी आपने अचानक चम्पापुरी पर आक्रमेण कर दिया। मेरा खयाल हैं, आप!भी अजा में शान्ति रखना यसन्द करते हैं। नरह॒त्या आपको भी पसन्द नही है। आप इस यात को समझते हैं कि क्षत्रिय का धर्म किसी को कष्ट देना नहीं किन्तु कष्ट देने वाले चोर और डाकुओं से प्रजा वी रचा करना है। यदि राजा स्पय फष्ट देने लगे तो उसे राजा नहीं, छुटेरा कहा जाएगा १ ! हे क्या आप कोई ऐसा फारण बता सकते हें जिंसस आप के इस आक्रमण ऊो न्यायपूर्ण कहा जा सके | है शतानीक- जय शठ्ु ने आक्रमण कर दिया हो उस समय स्यांय-अन्याय की बात करना कायरता है। अपनी कायरता को ' अर्म की आड में छिपाना वीर पुरुषों कर काम नही हैं। इस समय स्थाय और धर्म का बहाना निरादोंग है। युद्ध करना, नए नए देश जीतना, अपना राज्य जढ़ाना, चत्रियों के लिए यही न्याय * दधिवाहन- युद्ध से होने वाले मगर परिणाम पर




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