सुख चरित्र | Sukh Charitra

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Sukh Charitra by आनन्दसागर जी महाराज - Aanandasagar Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रे संम्बन्‌ (१३७७ ) विक्रम सम्बत्‌ १७०६ का सुवर्णमय सूर्य अपने दिव्य स्तर रुपको प्रकाशित करता हुवा लद॒य स्थानपर आन पहुँचा चारों ओरसे लोक मनोहर वस्तानूपण पहीन धपेशालामें एकत्रित होने लगे, थोझ्ेही समयमें क्‍या देसते है कि निर्मलायस्थाकों धारण करनेवाला वै- रागी वनझ्गा उवतु स्थानपर आन पहढ़ेँचा; आतेहो वरायर गुरु महराजको विनयपूर्षफ नमस्कार करके योग्य स्थानपर बेठ गया योझ्रेदी समयके वाद खझ्ठा होकर दोनो करणोर गुरु महाराजसे तथा विद्यमान सम्बन्धियोंसें एवं समस्त चतुर्विव सघप्ते कूमाका भार्थि हुवा सरई सक्षनोंने अनुग्रहपूर्त क कृपा वक्ीसकी; ततपश्चात्‌ गुस्ववेके तया समस्तके समकत एस अनुपम गायाका सचारण किया+- (गाथा ) - । खामेमि सब्वजीबे। सब्वेजीवा खमंठुमे ॥ मित्तिमें सब्व जूएसु । वेरंमह्न केणई ॥ श। जावाथ।--मे सर्व जीयासे कृमराका प्रार्थि होता दूं सर्वे जीव झुझे कमा करें; समरत जीवेंसि मुछे मेन्नीय ज़ाव है फिसीसे वेरजाव नही हे इस महा माइलिक गायेका सविस्तार विवेचन करनेके पश्चात्‌ गुरु महा- शजसें वन्दना कर बरघोड़ेमें प्रवृत्त दुवा ( वरघोरेका दृश्य ) सवेसे आगे नगारे ( 17005 ) पर विज्ञयका डैका धनाधनसें पह रहा था, निशान ( एणा)०॥ ) अपनी शोजाकों प्रकट कर रहा था, वेएम वा- जोकी ध्वनिचारों ओर गुआ रही थी, शोजनीक कुज्मर, कोतलके अख, शीविकायें, (पालखीयें) वग्गियें और सिगराम्र (सेजगामियें) अपनी धोने पृथक पृथक्‌ बतला रही थीं। सवार और सिपाहियोंकी हू




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