भक्तामर स्तोत्र | Bhaktamar Stotra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : भक्तामर स्तोत्र  - Bhaktamar Stotra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about प्रेमसिंह राठौड़ - Pemsingh Rathaud

Add Infomation AboutPemsingh Rathaud

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
श्री भक्तामर स्तोत्र [ १७ के जायगी | अतएव भक्ति-भगवान्‌ के प्रति प्रगाढ़ प्रीति-को हृदय में उत्पन्न करो । शक्ति सक्ति की सखी बनेगी तो तुम्दारे लिए इस्ती जगत में स्वग हा निर्माग कर देगी । कई लोगों का ऐसा विचार है कि भक्ति में विवेक की आवश्यकता नहीं है। विवेकहीन होकर भी भक्ति दो सकती है, यह सान्‍्यता भ्रमपूण है । सच्ची भक्ति का उद्गम ही विवेक से होता है ! जो भक्ति विवेक से उद्गत नहीं हुईं, वह सनुष्य को अक्सर गलत गाते की तरफ मोड़ देती है। भारत के पिछले धार्मिक इतिहाप्त को ध्यान पूथक देखने से यह स्पष्टरूप से विदित हो जायगा। भ रत मे दासी प्रथा का जन्म केसे हुआ था ? भेसों और बकरों के गल्ले देवी-देवताओं के आगे बलि क्यों होते हैं ? इसका कारण एक मात्र अविवेक ही है | अतएव विवेर प्रसृता भक्ति ही मनुष्य को भगवान्‌ की ओर प्रेरित करती है | उस विवेक को दूसरे शब्दों में सम्यर्दर्शन सी कह सकते है। जहाँ सम्यग्द््शन है, वह्दों सच्ची भक्ति होती है। जितने अंशों में सस्यग्द्शंन है उतने दी अंशो मे शुद्ध चेतना है । शुद्ध चेतना केवलज्ञान दिलाने वाली दे और अशुद्ध चेतना नरक फी ओर ले जाने वाली है । किसी की चेतना शुद्ध ओर किसी की अशुद्ध क्‍यों होती हे/इसका कारण कर्म है । जब जीव को शुद्ध चेतना या सम्यरद्शन प्राप्त हो जाता है, तभी उसके भवों की गिनती होती है । भगवान्‌ ऋषभदेब के तेरह ही पूर्वभव गणना में आते हैं। तो क्या तेरद भवों से पहले उद्की आत्मा का अस्तित्व नहीं था अथवा अस्तित्व त्तो था सगर बह जन्म मरण न करके सदा




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now