खरा सोना | Khara Sona

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Khara Sona by जगदीश झा 'विमल'-Jagdeesh Jhaa 'Vimal'

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about जगदीश झा 'विमल'-Jagdeesh Jhaa 'Vimal'

Add Infomation AboutJagdeesh JhaaVimal'

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
५१9 यारा सोना कप, कि माताजी हमछेगोंको क्या उपदेश देती थीं # उन्हींके पुण्य- पतापसे मुझे पढना-लि्वना सो आया भीर कुछ कुछ उपदेश भी प्राप्त हुआ। यदि थे अभोतक जीपित रहतों, 'तो मुझे ज्ञीवन याबा की पूरी पूरी सामरत्री मिल ज्ञाती। प्रेमा--हाँ, बहिन । तुम्दारी माताज़ीके आशीवादसे में' भी कुछ कुछ पढने छगी | अगर उस सप्रय कुछ ल्खिना पढना नहीं सोखती तो सासारिक वाताके विपयर्मे न कुछ सुन ही सकती और न समझ सकतो । गायत्रो--यह पत्र कौन छाया है १ प्रे मा--ओर कौन १ वे रातको आये हैं। सायतरो -फ्या महावीर बाजू आये हैं ? प्रेमा-हाँ, आये हैं । गायलो--इस रुपाऊे छिये जरा मेरी ओरसे उनके धन्यवाद अवश्य देना । प्रेमा--आप ही देना । थे तुमसे मिलना भी चाहते हैं । ... ग्ायवों --मैं' उनसे अवश्य मि्ठुगो । इस कृपाके लिये अलग ही अन्यवाद देना, वहिन । में तो उनले कवकी मिलो रहती , पर न मालूम वे आकर भी बिना मिले ही क्ये। चुपकेसे भाग जांते हैं! क्‍या जाने तूने . क्या फद दिया दे, कि थे सुझले मिलते भो नहीं । तू डरती है, कि कहों ये भी न उनके पीछे छग जाय । प्रेमा-खूब कहनी द्वा--चले, आज ही में तुमको उनके साथ मिलाये देती ६ | २




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now