वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग - 1 | Viyah Pannatti Suttam Bhag - 1

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Viyah Pannatti Suttam Bhag - 1  by आचार्य श्री नानेश - Acharya Shri Nanesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शंका का समाधान पाने के लिए निम्न दृष्टिकोण से चिन्तन अपेक्षित है-जितने भी तीर्थंकर होते हैं, वे किसी का भी उपदेश श्रवण करके दीक्षित नहीं होते, वे किसी से भी ज्ञान प्राप्त नहीं करते । किन्तु सभी तीर्थंकर स्वतः दीक्षित होकर साधवा की गहराइयों में उतरकर अन्तइचेतना से ज्ञान का विशिष्ट स्वहूप उजागर करते हैं। तदनन्तर उन्हे छोकालोक प्रभासकर केवल ज्ञार-केवल दर्शन से जो ज्ञात एवं दृष्ट होता है, उसी का कुछ कथन वे अपनी वाचा से करते हैं। अतः स्पष्ट है कि कोई भी तीर्थंकर परंपरा का अनुसरण नहीं करते, किसो एक वनी बनाई लकीर पर नहीं चलते अपितु वे खुद परंपरा बनाते हैं, लकीर तैयार करते हैं । इस दृष्टि से सभो तीर्थंकर धर्म के आद्य प्रवत्तेक कहे जा सकते हैं। लेकिन सभी तीर्थंकर द्वादशांगी का मुल्त: कथन एक ही समान करते हैं। उनके विवेचन में मौलिक रूप से कोई भेद नहीं आता । देश काछ आदि से समझाइस में अन्तर आ सकता है, किन्तु वस्तु तत्व के कथन में काई अन्तर नही आता । क्योकि सभी तीर्थंकरों का ज्ञान एक समान होता है। ज्ञान की दृष्टि से उनमें अंशत: भी अन्तर नही पड़ता । जितना ज्ञान महाप्रभु ऋषभदेव को था, उतना हो महाप्रभु महावोर को भो और उत्तना ही अतीत में हुए सभी ततीर्थकरों को भा । जब ज्ञान उनका एक समान होता है तथा वोतराग द्ञा प्राप्त होने से वे अवितथभापी होते हैं, तब उनके कहने में कभी विभेद भा हो नहीं सकता। जिप्त प्रकार प्यास लगने पर हर व्यक्ति पानी चाहता है। यह प्यास उसके भीतर से उठती है, वह किसी व्यक्ति के देखादेखो यह नहों चाहता है, बल्कि भीतर की प्यास से पानी चाहता है। जैसे सभी तृथितों की पानी की चाह एकसमान होगी । यदि दिवाकू का रंग सफेद है तो देखने वाले सभो स्वस्थ दृष्टा उसे श्वेत हो कहेगे। सूर्य प्रकाश देता है तो देखने वाले सभी स्वस्थ मानव उसे प्रकाशप्रदाता ही कहेंगे, अन्धकार देने वाठा नहीं । यह सब उनका कथन किसी का अनुप्तरण नहीं, अपितु अनुभूतिपरक होता है । ठोक उसी प्रकार इनमे भी बढ़कर जिन आत्माओं ने राग-द्वेप क्षय करके विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वे भी जोवादिक तत्वों का कथन, एक समान ही करेंगे, उनके कथन में मौलिक कोई अन्तर आने वाला नहीं है। अतः जिस द्वादशांगी का कथन महाप्रभु महावीर ने किया है, उसी का कथन पूर्ववर्ती तीर्थंकर भगवंतो ने भी किया था, इसी प्रकार अतीत में हुए अनन्त तीर्थकरों ने सी उसी मौलिक रूप में द्वादशागी का कथन किया। इस प्रवाह को हप्टि से द्वादशांगी को, अनादिता एवं शाइवततत। जानी जा सकती है। महा प्रभु महावीर मे जो देशना प्रवाहित की, वही वर्तम।न में भी अनवरत रूप में प्रवाहित हो रही है, जिस प्रकार मूलवेदिक शास्भरों को वेद, बौद्धशास्त्रों को 'पिठक' कहा जाता है, उसी प्रकार जन शास्त्र, द्वादशांगी को अग, श्रुत, आगम या गणिपिटक कहा जाता है, मूत्र, ग्रत्य, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, बचन, उपदेश, प्रज्ञापना, आगम*, आप्तवचन, ऐतिह्य, आम्नाय और जिन बचन, श्ुत ये सभी आगम के ही पर्यायवाचों शब्द है ।२ १. सुयसुत्तग्रस्यतिद्ध/तपवय थे जञाणवयण उबएसपण्यवण आमभेया एमद्ा पज्जया सुत्ते-अनुयोगद्वार ४ -- विशेषवश्यकमाध्य 4९५ २. तत्वापभाष्य १-२०




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