अथर्ववेद भाग - 1 | Athrvaved Bhag - 1
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
570
श्रेणी :
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जन्म:-
20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)
मृत्यु :-
2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत
अन्य नाम :-
श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी
आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |
गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
पत्नी :- भगवती देवी शर्मा
श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)का० $ धझ० ३ सू० १६ ] श्र
१४ संक्त
(ऋषि--अ्रथर्वा । देववा--सिन्ध्दादयी मस्त्रोक्ताः । दुग्द-अनुष्ट प्; पंक्ति:)
से से सवन्तु सिन्धवः से बाताः से पतत्रिण: ।
इम॑ यज्ञ प्रदिवो मे जुपन्तां संल्राव्येश हविपा जुहोमि 1१॥
इहैव हवमा यात म इह संस्नावणा उत्तेमं वर्धयता गिरः 1
इहैतु सर्वो यः पशुरस्मिन् तिष्ठतु या रयिः ॥२॥।
ये नदीनां संस्रवन्त्युत्वास: सदमक्षिता: ।
तेमिमों सर्वे: संस्रावर्धनं सं ्रावयामसि ॥1३॥
ये सर्पिपः संसवन्ति क्षीरस्थ चोदकस्य च ।
तेभिमें सर्वे: संख्रावर्धनं सं स्रावयामसि ॥४॥
समरत नदियाँ हमारे अनुकूल हो मिलकर यहें । यायु भी हमारे
अजु'इल होकर मिलफर बदते रहें । पी भी हमारे अ्रतुकल हों, साथ-साय
उड़े रहें ! पूर्व सभी देवता मेरे इस यक्ष का सेवन फरें । क्योंकि मैं बहने
पाले घी दूध दृवि झादि को संगठनवद्ध करके यज्ञ क/ रद्दा हूँ ॥ १ ! दे देवों
शाप सब्र भेरे थाद्धान फरने से मेरे यज्ञ में चाशों । यज्ञ में हवि की स्वीकार
करने याले भौर . स्तुति पाने बाले द्वे देवताओं! अपने प्रसाद स्वरूप इस
सजमसान को अजा, पशु घन धान्यादि से समृद्ध करो। ये हमारे पास था
जायें ॥ २ ॥ नदियों के जो श्द्य सोत म्रीष्मादि में भी कसी त्ीण न होकर
संगठन बद् होकर थद्दते हैं उन सबसे हम पशु, धन, धान्यादि अविच्दिय
रुप में म्राध्ष करते रहें ॥ ३ ॥ बदने वाले घृत, दूध, एवं जल के प्रयादों से हम
गौ, धन, धान्यादि को प्रवाह रुप में प्राह् फरं ॥ ४ ॥
१६ छक्त
( ऋषि--चातनः । देववा--अग्नि बरुण भादि | छत्द--धडहू,ए् 1 2
येध्मावास्यां रात्रिमुदस्थुत्नजिमत्विण: । .
अग्निस्तरीयों यातहा सो भ्रस्मभ्यमधि ब्रवत् ॥ ६1
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