विवेक - दर्शन | Vivek Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फु श्रीगुरुपरमात्मनेनम फू मगतत ज्ञान ही सर्वे का स्व-+-रूप->श्रात्मा श्रर्थात्‌ ईश्वर है तरतिशोकसात्सवित्‌ू न कमंणा न प्रजया; न धनेन त्यागेनेकेन5सृतत्त्वमाछुशुः ॥ मूजलमय-ान्दमय-सच्िदानन्द पुर्णन्रह्म परमेर्व्र सर्वात्मा को नमस्कार हो, श्रसंख्य बार नमस्कार हो । श्राप ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, प्रकृति श्रादि ईर्वरी शक्तियों के, सुयें, भ्रग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण झ्रादि दैवी शक्तियों के, व्यास चशिष्ठ, समस्त ऋषि-मुनि-श्रवतार श्रादि मानवी शक्तियों के, एवं समस्त प्रासी-मात्र के श्रात्मा, ज्ञान, श्रानन्द व अस्तित्त्व हैं । आ्रापके किसी एक अंशमात्र सें सडूल्प (इच्छा दक्ति) है जिसे माया भी कह सकते है, किन्तु वहू अग्नि में दाहकता व वायु में स्पंदन (क्रिया) वत्‌ श्रापका ही स्वरूप है । उस सड्ुल्प के किसी एक अझंशमात्र में अ्रसंख्य सूर्य, उनके श्राकषण एवं प्रकादा में श्रसंख्य ब्रह्मांड (विदव) है । प्रत्येक ब्रह्मांड मे श्रसंख्य व अनन्त सृष्टि इसो प्रकार से स्थित है, जैसे किसी के शरीर में रोम । ्रापकी विद्या, बुद्धि, ज्ञान, विज्ञान, ऐश्वर्य, विश्वुति, शक्ति, श्रालन्द, श्राज्लाद, प्रेम, शान्ति एवं महिमा झ्रादि श्रपार, अनन्त श्रौर असीम है । झाप ही ईदवर, देवता, मानव आदि बक्तियों एवं समस्त दरीरघारी प्राणियों के इष्टदेव, उपास्यदेव, झाराव्य- बन शू नर




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