लज्जा - हरण | Lazza - Haran

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Lazza - Haran by विमल मित्र - Vimal Mitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपने को ही लगता है, मैं जिसे भला मानकर, उसपर विश्वास करता हूं, उसके सचमुच भले होने का मेरे पास क्या प्रमाण है ? जिसे मैं बुरा समकता था, श्राज वही समाज को बाहवाही लूट रहा है । सबका सिरमौर बना हुआ है । इसलिए मैं इस फैसले पर पहुचा हूं कि हम भले-बुरे का विचार तभी करने बैठते हैं जब हमारे पास उसे साबित करने का कोई ठोस तर्क नही होता । इसके झलावा इस दुनिया में क्या सचमुच ऐसा कोई विचा- रक है, जो सही-सही विचार करता हो ? मुझे ऐसा विचारक कही नहीं दिखा । खेर, भते-बुरे का विचार करना समाजशास्त्रियों के जिम्मे है। मैं तो रप्तिकों के लिए कहानी लिखता हूं ॥ प्रतः मेरे लिए पाठक ही भसली विचारक हैं | प्रगर यह कह्दानी उन्हें पसन्द भ्रा जाए, तो मेरी सारी मेहनत भौर रात-रात भर जागता सचमुच सार्थक हो जाए। सुना है, तापस की झिन्दगी लखनऊ से ही शुरू हुई थी । कलकत्ते से बिना टिकट सफर करते हुए तापस जब लखनऊ स्टेशन पर उतरा, उस वक्‍त भूख के मारे उसके पेट में चूहे कूद रहे थे । न उसकी जेब में फूटी कौड़ी थी, न शरीर मे दम १ तापस झपती कहानी सुनाने लगा : उस दिन भ्रगर मैं सड़क के किनारे दम तोड़ देता तो शायद तमाम भमेलों से छूट्टी मिल जाती | लेकिन विधि का विधान तो कुछ शोर था। दरभसल हमारा जन्मदाता बेहद परिहास-रमसिक देवता है । उसे इन्सान से परिहास करने में बडा मजा भ्ाता है। हैरत की बात यह थी कि उसे दिल्लगी करने की सूफी भ्रौर वह मुम जैसे गरीब से मजाक कर बैठा । जब मैं रास्ते पर सड़ा-खड़ा इस सोच में पड़ा या कि भव किघर जाऊं, क्या कछं, क्‍या खाऊं--उस समय सूरज देवता मेरे तिर पर एक सौ वीस डिग्री तापमान वरसा रहे थे, जिसे कहते हैं लू । रास्ते में इक्के- इुक्‍के लोग । उस समय मुझे सिफे एक ही विन्ता थी कि इस बवत मैं किसे पकड़, कौन मुर्के प्राश्नय देगा ! इन्मान जब मुसीबत में होता है, तो उसे भनेजुरे का ज्ञान नही ३ न हा द््




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