तत्वार्थश्लोकवर्त्तिकालंकार भाग - 5 | Tatvarthashlokavarttikalankar Bhag - 5
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
699
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)“-+ श्रीतलार्थ छझोकवारत्तिकका मूलाधार ८-
पत्रम खड.
अथ द्वितीयोध्यायः ।
ओऔपन्नमिक्षायिकों भावों मिश्रदच जोवस्थ स्वतत्वप्रोवयिकपारिणिकों थे ।) १॥
दिनवाष्टादशंकविज्ञतित्रि मेदा यथाक्रमम् । २ ॥ सम्यक्त्ववारित्र । ३ ॥ शानद्शनदानलाम-
भोगोपभोगवीर्याण ले ।| ४।॥ शानाज्ञानदशंनलब्धयइचनुस्त्रित्रिपजु्च सेदा: सम्यत्त्वयारित्र-
संयभासंथमास्थ ॥1५)। गतिकवायलिड्गमिथ्यादर्शनाउसंयताईसिद्धलेश्यारचतुइचतुर प्ये कक कं कषह-
भेदा: ॥ ६ ।| जीवभव्याइभस्यत्वानि चर ।। ७ ॥ उपयोगो लक्षणम् 1८1 स द्विविधोष्टतुमेद:
॥ ९ ॥ संसारिणों मुकताइण ॥॥१०) समनस्काइमनस्का: ॥1११॥ सपस्तारिणस्थ्रतस्थावरा: ॥ ११॥
प्थग्यप्तेजो शायुवनस्पतयः स्थावराः 11 १३ ॥ होच्द्रियादय स्त्रसा: ॥। १४ ॥ पंचेन्द्रियाणि 11१५॥
दविविधानि ॥ १६ ।॥ निर्व॒त्युउक्त रणे द्रव्येन्तियम् ॥ १७ ॥ लब्ध्युपपोगो भावेन्द्रियम्॥ १८ ॥॥
स्पर्शन रसनध्ाणचक्षु:ओत्राणि ॥ १९ ॥ स्पर्शरसगन््रवर्णशब्दास्तदर्या, 1२०॥ श्रुतमनिन्द्रियप्य
॥ २१ ॥ बनर्वत्यन्तानाभेकम ।। २२ ॥ कृमिविपीलिका प्रमरमनुष्यादोनासेकंकवद्धाति ॥२३॥
संजिन: समतत्का: ॥ २४॥ विप्रहगतों कर्ंग्रोग: ॥ २५।॥! अनुश्रेणि गति: ॥ २६॥
अविग्रहा जोवत्य 1 २७ ॥ डिप्रहुवतो व संप्तारिण: प्राह्न खनुरुप्र: ॥ २८ ॥ एकसमया:ति-
ग्रहा 11 २९। एक द्वी त्रोस्वान!हारक: ॥ ३०! सम्मूछेनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१॥॥
सचिसशीतसंबुता: सेतरा भनिश्वारचकशस्तद्योवयः ॥ ३२ 1 जरायुजाण्डजपोताना गम: ॥ ३३ ।|
देवनारकाणामुपपाद: !। ३४ ॥ शोेषाणा सम्मच्छेतम् 1 ३५॥ ओऔदारिकर्तय क्रियिक्राहारकतंजस-
कार्समणानि झरीराणि।। ३६ ॥ परं पर॑ सुक्ष्मम् 1:७॥ प्रदेशतो5पंस्येयगुर्ण प्राऊतेगतात् 1३८॥!
अनम्तगुर्ण परे ।| ३९॥ अप्रतीघाते ॥ ४० ॥ अनादिसम्बन्धे च ॥ ४१॥ सर्वध्य । ४२॥
तदादीनि भाज्यानि युगपरदेकस्सिन्ना चतुरुप: । ४३1 निरुपभोगसत्त्यत् | ४४ ॥ ग्मप्तम्म्
जक्न भाद्यम् 11 ४५ ॥ ओऔपपादिक बंकियिकम् ।। ४६ | रूब्ध्रिप्रत्ययं च ॥ ४७ ॥ तेत्समपि
॥ ४८३ शुभ विशुव्वमव्याघाति बराहारक्क प्रमत्तमंयतस्थेव ॥ ४९॥ नारकतम्मच्छतो
मरुंसकानि 1 ५० ॥ न देवा: 1 ५१॥ शेयात्त्रिवेदा: 1 ५२।॥ ओऔपपाविकच रभोत्त्मदेहा:
धंब्येधवर्षा यृषो नपवर्स्यापुष: ॥1 ५३ ॥|
इति द्वितीयोध्य!य., |
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