तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार | Tatvarth Slokvartikalankar

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Tatvarth Slokvartikalankar by माणिकचंद कौन्देय-Manikchand Kaundey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तत्त्वाथचिंतामणि: बा नम 2५०>थ-लतम५-०५> ५५2५2 ५ल्‍ पल 3त ५ #५ *५# 2५त >५७०६३५०५०५७८०७०६ ;ध५३५५ल्‍५४> चल +ञ3ल3ल 3 लि न ५ल 3 >> जल 3ल3ल2 ५ 23ल न जल +ल कल 3ल+ल +ज+ज ५४3४० ५० ५+++५ ८७८५० ८४५०५७८०७०५८०५७८५+४४४५६८५४४*+४४++“+*: 'साशाकानतकलालमाह-फ फममानलाकम_ उमममान पक कानलान ० प* मनन कई “लेन ० पट पाभरपााकअअ+ 5३५५ थ५५७+++3र ७५“ ५०-36 336१ -५+क+३७४७३०४५५५७+७७०५ अप ८ 23>मुरमभम नम + आना; 3 ओम“ 3७३33 »९५-३५#33७७००७४०५रपऊ ३५)» पा ५&+९७७#म० ७ कथा +4+आापकन ता ३४+रभकर5 तमनए2-राा अर अ&म,. आचाये कहते हैं कि ग्रन्थकारके नास्तिकता दोषके दूर करनेका और प्रशंसा प्राप्त करनेका वह उपाय मी प्रशस्त नहीं है | अतः. वह तीसरोंका उत्तर भी निस्सार है । जब कि--- श्रेयोभाग प्रम्थेनांदेव वकतुनास्तिकृतापरिहारघटनातू तद॒भावे सत्यपि शास्रारम्मे प्रमात्मानुध्यानवचन तदनुपपत्त। वक्ता अन्थकारने आदि सूत्र ही कहें गये मोक्षमागका वात्तिक और भाष्य द्वार समर्थन किया है | इसीसे उनका नास्तिकपन दोष दूर हुआ घटित हो जाता है। उस यदि मोक्षमागका व्याप्ति द्वारा, हेत दृष्टान्तोंसे समर्थन न करते ओर शाखके आदिम परमात्माके वढिया ध्यान करनेका वचन कह भी देते तो सी वह नास्तिकताका परिहार नहीं हो सकता था | क्योंकि कई मनुष्य ४ विपकुम्स पयोगु्खे!” के न्‍्यायानुसार छोक रिशानिके लिये कतिपय दिखाऊ काम कर देंते हैं | पश्चात्‌ उनकी कलई खुल जाती है । अब चौथे कोई महाशय उक्त शंकाका उत्तर इस प्रकार देते हैं. कि--- “शिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वात्तदनुध्यानवचन तत्सिद्धिनिबन्धनमिति केचित्‌ !! । ४ गुरुजनमनुसरन्ति शिष्याः” इस न्यायसे गुरुपरिपाटीके अनुसार अनिन्दित चरित्रवाले शिष्ट-संज्नोंको अपने गुझुओंका पुनः पुनः ध्यान करना और उसका अन्थकी आदिम उल्लेख कर कथन करना अपने कर्त्तव्यका परिषालन है| इस कारण गुरुओंका ध्यान उस शाख्रकी सिद्धिका कारण है । गुरुआंका पीछे ध्यान करनेसे ही शिष्टठोंके आचारका परिपारन हो सकता है । ऐसा कोई कहते हैं | अन्थकार कहते हैं कि--- तद॒पि ताइशमव । खाध्यायादेरेव सक्लाशिशचार॒परिषपालनसाधनलनिणेयातू | . वह कहना भी तैसा ही है अर्थात्‌ यह भी कार्यकारणमाव पूर्वोक्तवादियोंके समान अन्वय- व्य्तिरिकको लिये हुए नहीं है । क्योंकि स्वाध्याय, देवपूजा, सामायिक आदि ही सम्पूर्ण सुशिक्षा- प्राप्त सज्जनोंके आचारका पूणे रीतिस पाछुन करानेवाले साधन निर्णीत किये गये हैं | केबल . गुरुओँके ध्यानसे तो शिष्टाचारं प्रगट नहीं होता है। क्योंकि अनेक चोर, मायाचारी (दगावाज), वेश्या, शिकारी छोग भी सम्मानार्थ अपने गुरुओं (उस्तादों) का ध्यान किया करते हैं । अब पूर्वोक्त शंकाके चारों उत्तरों में अस्वर्स (असंतोप ) बताकर स्वामीजी महाराज खयय उक्त शंकाका सिद्धान्तरूपसे समाधान करते हैं । शास्रस्योत्पत्तिहेतुलात्तदथेनिषेयसाधनत्वाद्य परापरणुरुप्रवाहस्तत्सिद्धिनिव- न्धनमिति धीमद्ू तिकरस. ह बी




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