वेदार्थ - चन्द्रिका | Vedarth - Chandrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देव ! बोलो घातारो देवा अधिवोचता नो मा नः निद्रा ईशत मौतजदिपः । बय॑ सोमस्य विश्वद्द प्रियासः खुवीरासो विद्थमायदेम ॥ ( ऋण ४४८॥१४ ) देव ! बोलो ! कितने दिन बीत गये ! बोलना तो दूर, तुम मेरी जोर देखते भी नहीं। यह ठीक है, साम्मुख्य समानधर्माओं का होता है। कद्दों तुम सतत जागरूक और कहाँ मैं निद्रालु ! कहाँ तुम परमशान्त और कहाँ मैं जरुपी, चादी । कहाँ तुम सोम के प्यारे और कहाँ में केवल भामधारी। कहाँ तुम वीर, प्रेरक और सत्यद्रष्टा, कहाँ मैं कायर, गतिह्टीन एवं भसत्‌-लीन ! यद्द दी है, पर यद्द भी ठौक है कि तुम त्राता हो, रक्षक हो, संकटों से निकालने वाले हों, विपदाओं से बचानेवाले हो, क्लेश-क्ष्ट को नष्ट करने वाले हो। तो क्‍या तुम मेरा ब्राण नहीं करोगे ? बया मैं इसी प्रकार राग-द्वेप के थपेड़े खाते-खाते, तम और रज के पाशों में ग्रसित, निद्रा और जल्प का दयनीय भवन ब्यतीत करते हुए अपने अस्तिस्व को विकृत होते देखा करूँगा ? शब्युओं ने मुस्ते शक्तिहीन कर दिया है, इसीलिये तो तुर्द्वारे अवलम्ब्रन की याचना करता हैं, बार-बार विनय करता हूँ, तुम्द बुछाता हूँ । देव ! आओो ! अपने सरस बचरनों द्वारा मुस्ते आश्वस्त करो 1 कुड तो कहो ! तुम न क्षाये, तुम न बोले, तो यद्द निद्रा के चंगुल से कैसे निकल सकेया, जहप के शासन से कैसे मुक्त होगा प्रभु का च्यारा कैसे बन सकेगा ? प्रभु का प्यारा बनने के लिये तम एवं रज़ से निकल कर सच्वस्थ द्वोने की आवश्यकता दै--ऐसा उन सभी मुनिर्यो ने कह्ा दे जिन्‍्दोंने तनिक भी दया-इष्टि से मेरी ओर देखा--पर ये रचर्य सुर्दारी और देखते थै--देसकर चले गये--मैरा उद्धार नद्दो सऊ--सत्‌ की संधिनी औौपध उसके पास थी दी नहों--वह तो सुम्दारे ही पाय है। प्रभु के साथ सुर्दारी




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