स्त्री | Stree

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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0७४६० “अब नही, भाई मुखर्जी वाबू को तकलीफ होगी ।” ष “ओह, तो यह कहिए कि बाप ही नही छोड पायेंगी उन्हे !” कहकर नगेन सरकार ठटद्ठाका लगाकर हमने सगता। मुखर्जी बीबी भी हमती । मुखर्जी बाबू को पहले-पहल अपने घर पर ही देखा था। छुट्टियों मे भैया के पाप्त गया था। बाहर से आवाज सुनाई दी, “डॉक्टर बाबू, डॉक्टर बाबू है क्या ?/ आकर देखा, हाथ में थैले और टीन के खाली डिब्बे लिये कोई खड़ा था । पैरो में जूते, वाल तरतीब से सभाले हुए । मुह पान की गिलौरियों से भरा था। मुझे देखते ही वह आदमी जंसे सकपका गया। पूछने लगा, ”तुम कौन हो ?” मैंने कहा, “मैं डॉक्टर बाबू का छोटा भाई हू, छुट्टियों मे घूमने आया हू ।” “ओह, अच्छा ! क्‍या करते हो ? नाम क्‍या है ?” सब बतलाया । फिर से वाले, “बडी अच्छी बात है ! जगह बड़ी अच्छी है । कुछ ही दिनो में मोटे हो जाओगे, मैं भी तुम्हारे जैसा ही १तना- दुबला था ।/ फिर हाथ का छाता उठाकर दिखलाने लगे और हस पो में भी हंस पडा । पूछा, “आप शायद यहा पर काम करते हैं ?” “हा, ड्राफ्ट्समिन हु। सारा खर्चा निकालकर भी दो सौ में से सौ, सवा-सौ बच जाते है !” मैं और क्‍या कहता । मुखर्जी बाबू ही बतलाने लगे, लेकिन कलकत्ता में ? तीन सो रुपये में भी बड़ी मुश्किल से काम चलता था, ठीक कह रहा हू न २ फिर सिर झुकाकर बोले, “वैसे यहा खर्चा ही क्या है ?” “क्यों ? खर्चा नहीं है ?” मुखर्जी बाबू बीले, “अरे, खर्चा होगा कैसे ? यहां मिलता ही क्या है ? घर मे सिर्फ दी प्राणी, मैं ओर मेरी पत्नी 17 फिर कहने लगे, “अब ' देखो कटनी जा रहा हूं । पूरे एक सप्ताह का




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