देवागम | Devagam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।
पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना ११
७१-७२ द्वारा उन अवयव-अवयवी, गुण-गुणी आदिमें कथश्चित् भेद,
कथख्वित् अस्नेद आदि सप्तभद्धी-प्रक्रिवकी योजना करके उनमें अनेकान्त
सिद्ध किया है और यह दिखाया है कि किस तरह उनमें अमेद ( एकत्व )
है और किस तरह उनमें भेंद ( नानात्व ) आदि है ।
इस प्रकार इस परिच्ठेदममें मेंद और अमेंदको लेकर विभिन्न वादियो
द्वारा मान्य भेदैकान्त, अभंदेकान्त आदि एकान्तोंकी आलोचना और
स्पाह्दनयसे उनमें अनेकान्तकी व्यवस्था को गई है ।
पश्चम परिच्छेद
इस परिच्छेद में ७३-७५ तक तीन कारिकाओ द्वारा उन वादियो-
की मीमासा करते हुए जैन दृष्टि प्रस्तुम की गई है जो सर्वथा अपेक्षासे
या नर्वथा अनपेक्षा आदिसे वस्तुस्वरूपको सिद्ध मानते हैं। कारिका
७६ में कहा गया है कि यदि धर्म और घर्मीकी, विशेषण और विशेष्यकी,
कार्य और कारणकी तथा प्रमाण और प्रमेय आदिकी मिद्धि सर्वया अपेक्षासे
मानी जाय तो उनकी कभी भो व्यवस्था नही हो सकती, प्योकि वे उसी
प्रकार अन्योन्याश्रित रहेगे जिस प्रकार किसो नदीमें ड्बतें हुए दो तैराक
एक दूसरेके आश्रय होते हैं और फलत दोनों ही डूब जाते हैं । यदि उनवी
सिद्धि सर्वथा अनपेक्षासे ( स्वत ) ही स्वीकार की जाय तो अमुक कार्य-
काण हैं, अमुक घर्म-धर्मी है, अमुक विशेषण-विशेष्य हैं, अमुक प्रमाण-
प्रमेय हैं और अमुक सामान्य-विज्ञेप हैं, इस प्रकारका व्यवहार नही वन
सकेगा, क्योकि ये सब व्यवहार परस्परकी अपेक्षासे होते हैँ ।
कारिका ७४ में सर्वथा उभयवादियोके उभयँकान्तमें विरोध और
सर्वथा अनुमयवादियोंके अनुभयैकान्तमें 'अनुभय' शब्द द्वारा भी कथन न
हो सकनेका दोप दिया गया हैं ।
७५ द्वारा स्याद्रादनयसे बस्तुस्वरूपकी सिद्धि प्रदर्शित की गई हैँ ।
कहा गया है कि धर्मघमिभाव, कार्यकारणभाव, विशेषणविशेष्यभाव और
प्रमाणप्रमेषभावका व्यवहार तो अपेक्षासे सिद्ध होता है। परन्तु उनका
स्वरूप स्वत सिद्ध है। यथार्थमें कार्यमें कार्यता, कारणमें कारणता,
प्रमाणमें प्रमाणता, प्रमेयमें प्रमेयता आदि स्वय सिद्ध हैँ वह परापेक्ष नही
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