जैन हितबोध | Jain Hitobodh

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Jain Hitobodh by कर्पूर विजय जी महाराज - Karpoor Vijay Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र वही धमेज्ञ स्वरर्भीभा३ ओर भगिनीओं के गुनरत्नोकी उम्दा किम्मत कर सकते हैं. पीडापाते हुवे साधर्मीओं के सुख निर्मित्त सची अंतरंगठ॒त्ति उन्हीं के ही दिलमे रमन करती है, अपन साधथर्मीयों के. दुःख देखकर बसे भाग्यवंतोंकों ही कंप छूटता है, यथार्शाक्त तन- मन-वचनसे स्वार्थंकी आहती देकर स्वधर्मीओंकी सच्ची सेवा भी. वैसे ही भाग्यभाजन बजाते हैं, ओर वसेही धमात्मा उत्तम प्रकार- की धमं बाबतकी तालीम देकर उनकों धमे के सन्‍्मुख, और व्यवहारिक कार्यकी भी तालीम देकर उनकों व्यवहार कुशल करते हैं, जिससे व इस लोक ओर परलोकर्म सुखी होते हैं, सच्चा साध- मीक संबंध समझम आये बिगर एसी परोपकारश्शत्त क्‍यों कर जाग्रत हो सके ! ऐसे अच्छे आशयवाले सज्जन क्‍या कबी भी अपने धमे बान्धवोंसे भेद भाव रच्खे? कभी नहीं ' क्‍या उन्होंका अतुल दुःख देखकर निःशंकतासें मोज मुजब मजाह उडावे ! किंवा अपने आर परायेके श्रेयका अति उत्तम मागे छोड़कर झूठे मान- मरतबेकी लखलूंटम उपस्थित हो जावे ? अरे । स्वपर के उद्धारका श्रेष्ठ मार्ग समझ सुज्ञ कुलीननन कबी भी अनथकारी मार्ग अंगीकार करे ही नहीं ! वेसे शाहाने सुनन अच्छी तरहस॑ समझते हैं कि- ज्ञानी पुरुष अपने स्वाथे बिगरही मित्र-बंवु हैं, बसे महात्मा तो फक्त परमाथ के दाबेस ही अपनकों हितमागे बतलाते हैं; तो वेसे महाशय पुरुषोंकी हितशिक्षाओंका अनादर करके स्वच्छंदढत्ती भज लेनी ये केवल उन्मादरुप-दीवानपना ही है, अमृतकी बोतल ढोल देकर उसमे (विष भर लेने जेसी बात है, उने के थालमे व्ल




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