अस्तित्व की खोज | Astitw Ki Khoj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
148
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अलौकिक सामर्थ्य का मूल : परमार्थ 34
का सत्कार किया जाता है, लेकिन क्या इन सबके पीछे परमार्थ ही एकमात्र
भावना है ?
व्यक्ति अपने अन्तजंगत में कई इृत्याकृत्यों से नैतिक शून्यता का अनुभव
करने लगता है। औौर अपने द्ुप्फर्मो का परिहार करने की इच्छा से, भविष्य
सुखमय बनाने की इच्छा से किंवा निविष्न जीवन-यापन की इच्छा से अथवा
भ्रन्य किसी भौतिक फलेच्छा से प्रभावित होकर सत्कृत्य की श्रोर अग्रसर होता
हैं। कोई जोम भथवा कोई-न-कोई मय आपको बड़े-से-बड़े सत्कृत्य के आधाररूप
में बैठा मिलेगा ।
फिर बड़े-बडे परोषकारी भी जब कर्त्ता की हैसियत के श्रनुपात से आँके
जाएँ तो वे किसी सामान्य छोटे परोपकार से भी बहुत छोटे प्रमाणित होते है।
स्वांसिद्धि के हेतु किया गया परमार्थ भी स्वार्थ ही की संज्ञा में
आता है ।
जितने क्रियाकलापों को हमने मोटे श्रर्थ मे कर्तव्य नाम की संज्ञा दी
है, वे समी मूलरूप मे प्रतिष्ठित स्वार्थ ही हैं। सरकार बड़े-बड़े उद्योग-पघंधरे,
मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर या यो कह दें यह पूरा का पूरा संसार-चकर स्वार्थ की
कीली पर घूम रहा है। हमारे सम्बन्ध, अ्रलगाव, शत्रुता और मैत्नी--सब स्वार्थ
पर केद्धित है। स्वार्थों की गुलाम मनोवृत्ति होती है! स्वार्थी का कपट-व्यवहार
होता है । स्वार्थी जीवन के हर क्षेत्र में व्यमिचार को वढावा देता है । शर्मे:-शर्मेः
मनुष्य इतना स्वाभिमानहीन हो जाता है कि उसमे और दुतकारे जानेवाले
कुत्ते में कोई अन्तर नहीं रहता। स्वार्थी कभी-कभी भ्न्य स्वार्थी का भी सहयोग
नही कर पाता, जब तक सहयोग के अन्तर्गत अपना स्वार्थ निहित न हो । पिता-
पुत्र में मुकदमे होते है। माई-माई लड़ मरते है ! पति-पत्नी पृथक् हो जाते हैं ।
मनुष्य स्वा्य ही के वश्ञीभूत अपने स्नेह-पात्र की हत्या करने तक प्र उतर श्राता
है। सच ही, ऐसा लगता है जैसे स्वार्थरूपी मयानक देत्य से बचने का कोई उपाय
नही। हम स्वार्थ में सोते है, स्वार्थ मे जागते है, स्वार्थ मे सोचते है, स्वार्थ ही में
क्रियाएँ करते हैं। हमारा तथाकथित परमार्थ भी किसी न किसी स्वार्थ ह्दीसे
सम्बद्ध है ।
है भी ऐसा ही । हम कही भी कभी भी स्वार्थ से अछूते नही रहते । रह
भी नहीं सकते। वयोकि स्वार्थ से अछूते रहकर परमार्थ के निकट झाने के लिए
पहली शर्त स्वयं को कप्ट देने की है, जो हमसे पूरी नहीं होती 1 हम स्वयं को
कष्ट देकर किसी का भला करने को कभी तैयार नही होगे । दूसरों की भलाई
के लिए अपना सर्वंस्व निछावर कर देने की पवित्र भावना बड़े-बड़े संत पुरुषों
में भी नही पायी जाती। लेकिन देवी-देवताओं को दु्लन यह महत् परमार्थ तत्व
एक निरछल गरीब गृहस्थ के निकट देखने को मिल सकेगा, एक परिश्रमी किसान
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