पद्मपुराणम् भाग - 1 | Padmapuranam Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
84 MB
कुल पष्ठ :
601
श्रेणी :
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No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावता २५
'दिगम्बर--्वेताम्बर' शब्दोका स्पष्ट प्रयोग कही भी नहीं देखा जाता। ऐसी स्थिति होते हुए यदि इस
ग्रन्थमे किसी जेनसाथुके लिए र्वेताम्बर (सियबर) शब्दका स्पष्ट प्रयोग पाया जाता है वो वह इस बातकों
सूचित करता है कि यह ग्रन्थ वि, सवत् १३६ से पहलेका बना हुआ नहीं है जिस वक्त तक दिगम्बर
व्वेताम्बरके सम्प्रदाय भेदकी कल्पना रूढ नही हुई थी। ग्रन्थके २२वें उद्देशमे एक स्थलूपर ऐसा प्रयोग
स्पष्ट है। यथा--
पेच्छइ परिभमतो दाहिणदेसे सियवर पणओ ।
तस्स सगासे धम्म सुणिऊण तओ समाढत्तों ॥७८॥
अह भणइ मुणिवरिंदों णिसुण सुधम्म जिणेहि परिकहिय ।
जेट्ठो य समणधम्मी सावयधम्मो य अणुजेट्ठो ॥७९॥
इसमे राजच्युत सौदास राजाको दक्षिण देशमें भ्रमण करते हुए जिस जैन मुनिका दर्शन हुआ था और
जिसके पाससे उसने श्रावकके ब्रत लिये थे उसे श्वेताम्बर मुनि लिखा गया है। अत यह ग्रन्थ वि सवत्
१३६ से पहलेकी रचना नही हो सकता ।
यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्वेताम्बरीय विद्वान् मुनि कल्याणविजयजी
तो अपनी 'श्रमण भगवान् महावीर” पुस्तकमें यहाँ तक लिखते है कि--विक्रमकी सातवी शताब्दीसे पहले
दिगम्बर-ध्वेताम्बर दोनो स्थविर परम्पराओमे एक दूसरेको दिगम्बर-इवेताम्बर कहनेका प्रारम्भ नही हुआ
था। जैसा कि उनके तिम्त वाक्यसे प्रकट है--
“इसी समय ( विक्रमकी सातवीं शताब्दोके प्रारम्भसे दसवीके अन्त तक ) से एक दूसरेकों दिगम्बर-
दवेताम्बर कहनेका भी प्रारम्भ हुआ ॥ पृष्ठ ३०७
मुनि कल्याणविजयजीका यह अनुसन्धान यदि ठीक है तो पठमचरियका रचनाकार विक्रम संवत्
१३६ से ही नही किन्तु विक्रमकी सातवी शताब्दीसे भी पहलेका नही हो सकता । इस ग्रन्थका सबसे प्राचीन
उल्लेख भी अभी तक 'कुबलूयमाला' नामके ग्रन्थमे ही उपलब्ध हुआ है जो शक सबत् ७०० अर्थात् विक्रम
सवत् ८३५ का बना हुआ है।
(२) श्री कुन्दकुन्द दिगम्बर सम्प्रदायके प्रधान आचार्य है। आपने चारित्तपाहुडमे सागार धर्मका
वर्णन करते हुए सलल््लेखनाको चतुर्थ शिक्षात्रत बतलाया है। आपसे पूर्वके और किसी भी ग्रन्थमे इस मान्यता-
का उल्लेख नहीं है और इसीलिए यह खास आपकी मान्यता समझी जाती है। आपकी इस मान्यता को
'पंठमचरिय' के कर्ता विमलसूरिने अपनाया है। श्वेताम्बरीय आगम सत्रोमे इस मान्यताका कही भी उल्लेख
नही है। मुख्तार साहबको प्राप्त हुए मुनिश्री पुण्यविजयजीके पत्रके निम्न वाक्यसे भी ऐसा ही प्रकट है--
द्वेताम्बर आगमोमें कही भी बारह व्रतोमें सल्लेखनाका समावेश शिक्षान्नतके रूपमे नही किया गया है ।
चारित्त पाहुडके इस सागार धर्मवाले पद्योका और भी कितना ही सादृश्य इस पठमचरियमों पाया जाता है,
जैसा कि नीचेकी तुलतापर-से प्रकट है--
पचेवणव्वयाइ गुणव्वयाइ हवति तह तिण्णि ।
सिकखावय चत्तारि य सजमचरण च सायार ॥२३॥।
थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य 1
परिहारो परमहिला परिग्गहारभ परिमाण ॥२४॥
दिसविदिसमाणपढम अणत्यथदण्डस्स वज्जण विदियं ।
भोगोपभोगपरिमा इयमेव ग़ुणव्वया तिण्णि ॥२५।॥
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