अध्यात्म तरंगिणी | Adhyatma Tarangini

Adhyatma Tarangini by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ट कवि ने श्रपने व्यवहार के सम्बन्ध में स्वय निम्न सूचना दी है-- मैं छोटो के साथ अ्नुग्रह, वरावरी वालो के साथ सुजनता श्रौर बड़ों के साथ महानु श्रादर का वर्ताव करता हूँ । इस विषय मे मेरा चरित बहुत ही उदार हैं, किन्तु जो मुभे ऐंठ दिखलाता है उसके लिए गर्व रूपी पंत को विध्वदा करने वाले मेरे वज्ध-वचत कालस्वरूप हो जाते हैं* । वे श्रहुकारी पड़ित रूप गजो के लिए सिंह के समान ललकारनेवाले, वादि-गजो को दलित करने वाले श्रौर दुर्घर विवाद करने वाले श्री सोम- देव मुनि के सामने वाद के समय वागीद्वर या देवगुरु वृहस्पति भी नहीं ठहर सकते * । सोमदेव यद्यपि नग्त सुनि थे, घ्यानाध्ययन तथा तपछचरण मे सुदृढ़ थे। परन्तु ऐसा जान पढ़ता है कि वे उस समय मठवास को पसन्द करने लगे थे, क्योकि दानपत्र मे उनका पूजोपहार श्रादि का दान लेने का उल्लेख पाया जाता हैं । उस समय चंत्यवास या मठवास की प्रवृत्ति जोर पकडती जा रही थी । यद्यपि मुनि चर्या मे तव तक कोई खास श्रन्तर नही श्राया था, किन्तु साधु जन वनवास छोड़कर नगर के समीप वसने लगे थे । भ्राचाय गुणभद्र ने तो ग्राम के समीप बसने वाले तपस्वियो की प्रवृत्ति पर श्रपना खेद व्यक्त किया है । * प्रत्पेज्ुप्रह थी. समे सुजनता मात्ये महानादर , सिद्धान्तोध्यमुदात्त चित्र चरिते श्री सोमदेवे मथि । य स्पर्धेन तथापि दपंदृढता प्रौढि प्रगाढाग्रह- स्तस्था रवर्वितगर्वपवंतपविमंद्वाक्कृतान्तायते ।॥।-यश० १ दर्पान्‍्घवोधवूधसिन्घुर सिहनादे, वादिद्धिपोह्लन दुर्घरवाग्विचादे । श्री सोमदेव मुनिपे वचना रसाले, वागीश्वरोध्पि पुरतोध्स्ति न वादकाले । --यदा० २ इतस्ततरुच चस्यन्तों विभावर्या यथामृगा । वनाद्िषन्त्युपग्राम, कलौं कष्ट तपस्विन ।। आत्मानुशा ०१९७




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