प्रपन्च - परिचय | Prapanch Parichay

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Prapanch Parichay by आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:

Add Infomation AboutAcharya Visheshwar Siddhantshiromani:

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
दर्शनकी पारिसाषा श्३ ऊपर दी हुई दर्शनशात्रकी परिभाषाअमसे जैसा कि हम पहले ढिपर चुके है किसीकी पूणे नहीं कहा जा सकता, परन्तु फ़िर भी इतना अग्य्य है कि वह सत्र एक सूत्रमे बँधी हुई हैं--- एक प्रवाहम पह रही हैं.। एक समान भाय है जो ऊक्लि उनमेंसे हर एकके भीतर काम करता नजर आता है, यही भाव दरैनशाश्रकी जान है | यही वह मौलिक तत्त्व है, यही वह केन्द्र है जिसके चार ओर दशैन- शासकी सारी परिभाषांय चक्कर लगा रही है। उसीके भीतरसे दर्शनशात्रकी उत्पत्ति और तरिकास होता है. और अन्तको उसी भीतर उसका छय हो जाता है । में क्‍या हैं ? यह दृश्यमान्‌ जगत क्या है ? हम दोनों कहँसे आये और कहों जा रहे हैं ? इन प्रश्नोफी उत्पत्तिके साथ ही दाशीनिक प्रक्रियाका प्रारम्भ होता है और इन प्रश्नौफे उत्तरम है| दगनशाखका यवनिकापात, समामि, हो जाती है | प्ैटो, अर्स्टाटिल या फिच्ठेने अपनी अपनी परिमाषाभार्म चाहे जेः शअद्ध रखे हो, परन्तु उनकी परिभाषाओकी जान-उनके भीतरका मौलिक रहस्य-यही मात्र है । पूपे और पश्चिमके नवीन और प्राचीन सारे दाशनिक साहित्यका अनुशीलन एकमात्र इसी परिणामपर पहुँ- चाता है । इतने उम्बे-चौंडे, पुराने और तरिस्तृत दाशनिक साहित्यका मुग्य आडोच्य गिषय यही भाव रहा है। इन ही प्रस्नोका उत्तर खोजनेमे दी ससारकी सारी प्रतिमा व्यय हो गई है, ऐसा प्रतीत होता है । पूरे और पश्चिमके सारे दाशैनिक सहित्यमे इन अस्नोक्ी आखे- चनाऊे अतिरिक्त जे ऊुछ है वह थोडा-बहुत थोडा है, और वह भी सृरनमुखीरी तरह परमुखापेक्षी इसी भायका मुख देख रहा है, इसीके सम्थनर्म उसका नि्मोण हुआ है ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now