काव्यालंकारसूत्रवृत्ति | Kavyalankarsutravritti

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kavyalankarsutravritti by आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:

Add Infomation AboutAcharya Visheshwar Siddhantshiromani:

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अनुशादित ही माना है। प्रतिभा फो प्रतिष्ठा वासना अथौत्‌ आत्मपरक दृष्टि- कोण को प्रतिष्ठा है। चासन ने उसका निषेध तो नहीं किया--फर भी नहीं सकते थे । परन्तु उ्ते प्रको्ण से फेक दिया है वामन के दिवेचन में एक बेच्छिय और है। श्न्य आचार्यो ने लोक और शास्त्र को एयक प्रथफ़ अहण न कर उनके परिणामस्वरूप निपुझता को ही सयुक्त रूप से फाब्य का द्ेतु माना है। उनके मताजुसार लोक व्यवहार- ज्ञान भ्रथधा शास्त्र-ज्ञान अपने श्राप मे काव्य का हेतु नहीं हो सकता, घरन्‌ इन दोनों के समवेत प्रभाव-रूप निपुणता हो फवि-कर्म से सहायक हो सकती है। मम्मट तो बास्तव में और भी थागे गए ह--उन्होंने शक्ति; निपुणता शोर अभ्यास फो भी प्रथक पृथक काव्य के हेतु नहीं साना--तरत इन तीनो को समन्वित रूप से पाव्य फा हेतु माना है (हेलु्न तु हेलव )। और वास्तव में यही ठौक भी है--क्योकि न॑तो लोफब्यवद्वार-ज्नान भर न शास्त्रीय पाशिइस्य द्वी काव्य फा कारण द्वो सकता दे इश्फ़ को दिल मे दे जगह नासिख इल्म से शायरी नहीं आती। संस्कृत के साथ, हिन्दी के फ्रेशवदास, अगरेज़ी के मिहटन आदि क्रवियों के काव्य साही है कि लोफानुभव और शास्त्र-झञान दोनों का ही स्वतन्न और सीधा प्रयोग काव्य में बाधक हो जाता दै | इनका श्रप्रत्यक्ष उपयोग ही श्रेय- स्कर है--अर्थात्‌ इनके हारा प्राप्त व्युपन्नता ही कवि के ध्यक्तित्य और व्यक्तित्व के द्वारा उसके काव्य फो सस्द्व करती हैं। चामन ने इनका प्रथक निर्देश कर इस सध्य को उपेक्षा फी है । परन्तु इन दोनो भ्रुटियों के लिए वासन की चस्त परक--प्रधवा--याप्यार्थ निरुपिणी दृष्टि दो उत्तरदायों हैं। पूर्व-जन्स के अर्जित सस्‍्कार जिनका नाम हे प्रतिभा, आर इस जन्म में लॉकानुभव तथा शास्ब्राध्ययन द्वारा अ्रजित साहित्यिक सस्कार (खिटरेरी कल्चर) जिनको काव्य शास्त्र में निपुणता कहा गया दै। आतरिक शुण है . इनकी सगति श्स शोर ध्यूनि के साथ द्वी श्रधिक बेठती दै। इसके विपरीत लॉकासुभव ओर शास्त्र ज्ञान बाह्य गुण 61 अतपुव रीति अथोद विशिष्ट पदरचना को काइ्य को श्रात्मा मानमे वाले आचाय॑ के लिए लाक और त्रिया को स्वतत्र रूप से काव्य- हेतु मानना भी सगत हो है । काव्य के अधिकारी -अजुबन्ध-चतुष्टय का एक भुण्य श्रग है ( १६ )




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now