महापुराणम भाग 2 | Mahapurana Bhag 2

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Mahapurana Bhag 2  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ मदापुरायम्‌ हारिभि फिश्नरोद्गीते श्राहुता हरिणाइगना । दधती सोरबच्छेषु' प्रसारितगतद्गला ॥१४४॥ हथ॑ ससारसाराब पुलितदिब्ययोषितामू । नितम्वानि सकाध्चीनि हसतोमिय विस्तृत ॥१४५॥ घतुरंशभिरत्विता सहसेरब्धियोपिताम्‌ । सद्धीचीनामियोहीचि' बाहुतां प्ररिरम्भणे ॥१४६॥ इत्याविष्कृतसशोेमा “जाह्वुवीमैक्षत प्रभु । हिमवदृगिरिणाम्भोधे प्रहितामिय परण्ठिफाम्‌ ॥१४७॥ मालिनी बृत्तम्‌ शरदुप हितकान्ति प्रान्तकान्तारराजीविरचितपरिधाया “संकतारोहरम्पाम्‌ । युवतिमिव गभीरावर्तनाभि भ्रपश्यन्‌ प्रमदमतुलमूहे क्ष्मापति सर्व स्रवन्तीम्‌ ॥१४४॥ सरसिजमकरम्दोद्गन्धिराधूत रोधोवनकिसलयमन्दा दोलनोदूढ भान्दय | अ्सकृदमर सिन्धोराधुनानस्तरडगानू. भ्रहृत मुपवधूनामध्वलेद. रामीर ॥8४६॥ सुन्दर थी । जो चचक लऊहरो रूपी हाथोसे स्पर्श किये गयें और अकुररूपी ,रोमाचोकों धारण किये हुए अपने किनारेके वनके वृक्षोसे आश्रित थी और उससे ऐसी मालूम होती थी मानो कामी जनोसे आश्रित कोई स्त्री ही हो ।- जो जहूकणोसे उत्पन्न हुए तथा चारो ओर फंलते हुए मनोहर शब्दोसे अपनी इच्छानुसार किनारे परके लतागृहोम बैठे हुए देव देवागनाओकी हँसी करती हुई सी जान पडती थी। किन्नरोक मधुर शब्दवाले गायन तथा वीणाकी भनकारसे सेवनीय बिनारेकी पृथिवीपर बने हुए छतागृहोसे जो बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी।- किनर देवोके मतोहर गानोसे बुलाई हुईं और सुखस ग्रीवाको लूम्वा कर बंठी हुई हरिणयों को जो अपने किनारेकी भूमिपर घारण कर रही थी 1- जिनपर सारस पक्षी कतार वाधकर मनोहर शब्द कर रह हे ऐसे अपने वर्ड बडे सुन्दर क्नारोसे जो देवागनाओोके करधनी सहित नितम्बोबी हँसी करती हुईं सी जान पडती थी ।- जिन्होंने आरलिगन करनेके लिये तरगरूपी भुजाएं ऊपरकी ओर उठा रखी हे एसी सखियोक समान जो चौदह हजार सहायक नदियोसे सहित है ।- इस प्रवार जिसवी शोभा प्रकट दिखाई दे रही हूं और जो हिमवान्‌ पर्वतके द्वारा समुद्रवें लिये भेजी हुई कण्ठमाछाके समान जान पडती है ऐसी गज्ञा नदी महाराज भरतने देखी ॥१२९-१४७॥ शरदूऋतुके द्वारा जिसकी कान्ति वढ गईं हूँ किनारेके वनोकी पक्ति ही जिसके वस्त्र हे, जो बाटूके टीलेरप नितम्बोसे बहुत ही रमणीय जान पडती है, गभीर भवर ही जिसवी नाभि हू और इस प्रकार जो एव तरुण स्त्रीवें समान जान पड़ती है ऐसी ग़ज्भा नदीवो देखते हुए राजा भरतने अनुपम आनन्द धारण किया था ॥१४८॥ जो बमलोवी भवरन्दमसे सुगन्धित है, बुछ बुछ वम्पित हुए किसारेवे वनके पल्‍्लवोवे धीरे धीरे हिलनेसे जिसका मन्दपना प्रकट हो रहा है और जो यज्भा नदीवी तरगोको वार-बार हिछा रहा १३ प्ीरवनपु॥ २ प्रसारिता भूत्दा मृजातिशयेगराधों गतदुगतों थागा ता ॥ ३ रासीनाम्‌ | ४ यीचिवाटूता ए०। >गंगामु। ६ प्राप्तत ७ सैदानितम्य ।




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