गणदेवता | Ghanadevata
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
640
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धोवी, दाई, घोकीदार, घाट का भल्लाह, बहार जोगनेवाछा--सव अबड़ बैठे है, उठने
पान पर हम काम नहीं कर सकये । तारा नाई तो थाज ही घर के सामने अजुन पेड़ के
वीचे इंट डालकर बैठ गया है--पैसा छे आ, हजामत बनवा 1
बिलम झ्ाड़कर नये प्रिरे से तम्बाकू भरते हुए अनिरुद्ध ने बहा, “'दच्छा ! वैसे
प्ोछ्ो गाँठ से, खोआ खाओ | हम तुम्हारे विराने थोड़े हो हैं।”
पिरीय्य की दावबीद में पब्डिताई दिसाने का खास ढंग रहता हैं ॥ आदत हो
गयी है उसकी । वह बोला, “यह बात हुई। पहले का समय कुछ और था। सस्ते वा
जमाना था, उस समय धान पर काम करके घल जाता था | हम करते थे । अब अगर
ने चलता हो....”!
बाहर रास्ते पर साइकिल की दुनदुन घण्टी दजी ! और साथ हो साथ आवाश
मायी--मनिरुद्ध !”
डॉवटर जगप्ताथ घोष ।
अनिष्द्ध और गिरोश दोनों जने बाहर निकृछे। नाठे क़द का मोदा-मोटा
आादमी--वावरों बाल । वह साइकिल पकड़े सड़ा था ।
डॉक्टरी उसने कहीं से पढ़-सुनकर महीं पास को थी। चिवित्सा-विद्या उसकी
पुए्तैनी घी--तीन पुश्त ते । दादा कविराज थे, वाप और चाचा कपिराण बौर डॉरटर
दोनों थे । जगप्नाथ सिर्फ़ डॉक्टर था; हाँ, कम्री-कमी दो-एक मुष्टियोग का प्रयोग करता
था। उससे झटपट लाम भी होता था । गाँव के समी छोग उसे दिखाया करते, मगर
पैसा जरदी कोई नहीं देता । डॉवटर को इसपर ज्यादा एतराज् नहीं । दुछाते ही जाता,
उधार पर उपार देता। दूसरे गाँवों में भी घुरू से उसका नाम-यज्ञ या, सो उसी क्षामदनी
से गुझारा चलता | कभी राग-मात और कमी, जिसे बहते हैं, एक अप्त पचास स्यंजन
जब जैसी आमदनी । कमी धोप छोय धनवान् और प्रतिष्ठित थे। घनियों के गाँव कफना
में भो उनका पाता सम्मान था, किन्तु फंकना के ही लफ़पती मुखर्जी परिवार का हार
का ऋण धीरे-धीरे चार हजार हो गया और घोपों को सारी जायदाद हृप बैठा ।
जायदाद ओर तब के सम्मानित बूड़ों के गुझर जाने से उनकी मान-मर्यादा भी चली
गयी । जगन्नाथ के छाख इछाज और दवा वो मदद करने पर मी बह मर्यादा नहीं
लौटी । वह किसी की रियायत नहीं करता--ऊँवे गले से कड़ी भाषा में वहता--सब
के सब चोर हैं--जातपर | कुछ छि1कर नहीं, सामने ही कहता । छोगों को छोटी-्सी
मूल का भी यह बड़ा पठोर प्रतिवाद करता ।
अनिरद्ध और गिरी्ष के बाहर निउलते हो डॉक्टर ने बिना किसी भूमिश के
गहां, “वाने में डायरी लिया दो ?”
अनिदद्ध ने कहा, “जो, यही तो...!”
“वही हो वया ? जा, डायरी लिया आ ।/
“जी, रामी मना कर रहे हैं। कहते हैं, छिसू पाए ने चोरी की है, भठा हर
श्३
चण्टीसण्दप
चण्दोमण्डप रा
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