गणदेवता | Ghanadevata

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Ghanadevata by ताराशंकर वंद्योपाध्याय - Tarashankar Vandhyopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धोवी, दाई, घोकीदार, घाट का भल्लाह, बहार जोगनेवाछा--सव अबड़ बैठे है, उठने पान पर हम काम नहीं कर सकये । तारा नाई तो थाज ही घर के सामने अजुन पेड़ के वीचे इंट डालकर बैठ गया है--पैसा छे आ, हजामत बनवा 1 बिलम झ्ाड़कर नये प्रिरे से तम्बाकू भरते हुए अनिरुद्ध ने बहा, “'दच्छा ! वैसे प्ोछ्ो गाँठ से, खोआ खाओ | हम तुम्हारे विराने थोड़े हो हैं।” पिरीय्य की दावबीद में पब्डिताई दिसाने का खास ढंग रहता हैं ॥ आदत हो गयी है उसकी । वह बोला, “यह बात हुई। पहले का समय कुछ और था। सस्ते वा जमाना था, उस समय धान पर काम करके घल जाता था | हम करते थे । अब अगर ने चलता हो....”! बाहर रास्ते पर साइकिल की दुनदुन घण्टी दजी ! और साथ हो साथ आवाश मायी--मनिरुद्ध !” डॉवटर जगप्ताथ घोष । अनिष्द्ध और गिरोश दोनों जने बाहर निकृछे। नाठे क़द का मोदा-मोटा आादमी--वावरों बाल । वह साइकिल पकड़े सड़ा था । डॉक्टरी उसने कहीं से पढ़-सुनकर महीं पास को थी। चिवित्सा-विद्या उसकी पुए्तैनी घी--तीन पुश्त ते । दादा कविराज थे, वाप और चाचा कपिराण बौर डॉरटर दोनों थे । जगप्नाथ सिर्फ़ डॉक्टर था; हाँ, कम्री-कमी दो-एक मुष्टियोग का प्रयोग करता था। उससे झटपट लाम भी होता था । गाँव के समी छोग उसे दिखाया करते, मगर पैसा जरदी कोई नहीं देता । डॉवटर को इसपर ज्यादा एतराज् नहीं । दुछाते ही जाता, उधार पर उपार देता। दूसरे गाँवों में भी घुरू से उसका नाम-यज्ञ या, सो उसी क्षामदनी से गुझारा चलता | कभी राग-मात और कमी, जिसे बहते हैं, एक अप्त पचास स्यंजन जब जैसी आमदनी । कमी धोप छोय धनवान्‌ और प्रतिष्ठित थे। घनियों के गाँव कफना में भो उनका पाता सम्मान था, किन्तु फंकना के ही लफ़पती मुखर्जी परिवार का हार का ऋण धीरे-धीरे चार हजार हो गया और घोपों को सारी जायदाद हृप बैठा । जायदाद ओर तब के सम्मानित बूड़ों के गुझर जाने से उनकी मान-मर्यादा भी चली गयी । जगन्नाथ के छाख इछाज और दवा वो मदद करने पर मी बह मर्यादा नहीं लौटी । वह किसी की रियायत नहीं करता--ऊँवे गले से कड़ी भाषा में वहता--सब के सब चोर हैं--जातपर | कुछ छि1कर नहीं, सामने ही कहता । छोगों को छोटी-्सी मूल का भी यह बड़ा पठोर प्रतिवाद करता । अनिरद्ध और गिरी्ष के बाहर निउलते हो डॉक्टर ने बिना किसी भूमिश के गहां, “वाने में डायरी लिया दो ?” अनिदद्ध ने कहा, “जो, यही तो...!” “वही हो वया ? जा, डायरी लिया आ ।/ “जी, रामी मना कर रहे हैं। कहते हैं, छिसू पाए ने चोरी की है, भठा हर श्३ चण्टीसण्दप चण्दोमण्डप रा




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