तमिल महाकवि तिरुवल्लुवर | Tamil Mahakavi Tiruvalluvar

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Tamil Mahakavi Tiruvalluvar by डॉ रवीन्द्र कुमार सेठ - Dr Ravindra Kumar Seth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शरतीय-फनिय का गौरव 19 चक्रवर्ती नायनार तथा श्री के. एम. सुव्रह्मण्यम्‌ के अनुवाद उल्लेख्य हैं | श्री सी. जे. बेस्की के 1730 ई. में प्रकाशित लैटिन अनुवाद की भी विद्वानों ने सराहना की है। आज भी तिरुक्षतल के नवीन अनुवाद अनेक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में किए जा रहे हैं | तमिल में तिरुकरल के विभिन्न पक्षों पर अनेक शोध-कार्य हो चुके हैं। हिन्दी मैं इस क्षेत्र का प्रथम और सम्भवतः एक-मात्र शोध-कार्य दिल्‍ली विश्वविद्यालय से 1973 ई, में हुआ | इसका प्रकाशन “तिरुवल्लुवर एवं क्रवीर का तुलनात्मक अध्ययन शीर्षक से 1972 में हुआ । डॉ. ओमप्रकाश की प्रेरणा से यह शोध डॉ. रवीन््र कुमार सेठ ने किया | वर्ण्य विषय तिरुक्करल मुक्तक काव्य है, इसका प्रत्मेक पद स्वतंत्र रूप से पूर्ण अर्थ का घोतक़ है पर विषय की दृष्टि से ग्रंथ में निरन्तर एक क्रमबद्धता एवं धारावाहिकता है| कुरल का अर्थ है 'लघु' । 'कुरल वेण्पा' नामक लघु छन्द में दो चरण होते हैं जिसके प्रथम चरण में 'चार' तथा द्वितीय चरण में केवल 'तीन' पद होते हैं । इसकी रचना पर्याप्त जटिल है और प्रत्येक पद पूर्धपपद से और प्रत्येक अध्याय पूर्च-अध्याय से अत्यन्त सूक्ष्म रूप में सम्पृक्त है | ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है - धर्म (अरम), अर्थ (पोरुल), काम (इवनम्‌) | धर्म-खण्ड (अरतुप्पाल) में प्रस्तावना के अन्तर्गत सर्वेश वन्दना, वर्षा-पैशिष्टय, संन्यासी का महत्व एवं धर्म की शक्ति का वर्णन करने के उपरान्त बीस अध्यायों में गृहस्थ के धर्म (इल्लर वियल) का प्रतिपादन है| इसके अन्तर्गत गृहस्थ, पली के गुण, संतति, स्रेह-सम्पन्नता, ईर्ष्या न करना, लोध न करना, चुगली न करना, च्यर्थ प्रताप न करना, शिथचार, दान, यश, इत्यादि विषयों का विवेचन किया गया है | धर्म-खण्ड के दूसरे अंश में संन्यास-धर्म (तुरवरवियत) के अन्तर्गत दयालुता, मांसाहार-निषेध, तपस्या, दुराचरण, चोरी न करना, सत्यभाषण, अक्रोध, अहित न करना, अहिंसा, स्थिरता, तत्वज्ञान, तृष्णादमन इत्यादि विषयों का विस्तृत विवेचन है 1 ये सभी धर्म यधपि संन्यास-धर्म (तुरवरदियल्‌) के अन्तर्गत आये हैं पर मानव-मात्र के लिए उपयोगी होने के कारण इन्हें धर्म का अंग माना गया है| गृहस्थ और संन्यास का वर्गीकरण किसी सूक्ष्म सिद्धान्त पर आश्रित न होकर सतही है। इसी खण्ड में एक अध्याय भाग्य (उ) पर है जिसमें कर्म-फल एवं भाग्य का विवेचन है ।




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