न्यायविनिश्चयविवरणम भाग 2 | Nyaya Viniscaya Vivarana Bhag 2

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Nyaya Viniscaya Vivarana Bhag 2  by महेन्द्रकुमार जैन - Mahendrakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 पस्तावना ४ फू दशाम्त साध्यकी प्रत्तिपत्तिके छिए भी उपयोगी नहीं हैं. क्योंकि अविनाभावी साधनसे ही साध्य- की सिद्धि हो जाती है। ध्याप्ति स्सरणके लिए भी उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अधिनाभावी हेतुके प्रयोगसे ही च्याप्तिका स्मरण हो जाता है । अविनाभावके निर्चयके लिए भी उसकी आवश्यकता इसलिए नहीं ऐ कि घिपक्षस वाधघक प्रसाणके द्वारा ही अधिनासावका निरचय हो जाता है। फिर, दृष्टान्त एक व्यक्तिका होता है और च्याप्ति होती है सामान्यविषयक, अतः यदि उस दृष्टान्तमं व्याप्तिविपयक संशय हो जाय तो अन्य इष्टान्तकी आधश्यकता पड़ सकती हे। इस तरह अनचस्था दूषण आता है। यदि केघल दृष्टान्तका कथन किया जाय, तो उससे पक्षमे साध्यका सन्देह ही पुष्ट होता है। यदि ऐसा न हो तो सन्देहके नियारणके लिए उपनय और निगसनका प्रयोग क्यों किया जाता है ? अतः पक्ष- धर्मधर्मीसमुदाय और हेतु ये दो ही अवयव अनुसानके हो सकते हैं। बीद्ध, विद्वानोंके लिए केवल एक हेतुका प्रयोग मानकर भी उसके स्वरूपसे उदाहरण और डपनयको जन्तभू'त कर छेते हैं। उनके हेतुका प्रयोग इस प्रकार होता है-'जो जो घूमवाला है बह वह अग्निवाला है जेसे रसोईघर, उसी तरह पर्वत भी धघूमवाला है! इस प्रयोगमे हेतुके त्रेरूप्यको समझानेके लिए अन्धय दृशान्त और व्यतिरेक द्श्टान्त आवश्यक होता है, और हेतुके समर्थनक्के लिए श्टान्वके साथ ही साथ उपनय भी आवश्यक है। हेतुकी साध्यके साथ व्याप्ति सिद्ध करके उसका अपने धर्मीमें सद्भाव सिद्ध करना, समर्थन कहलाता है। इस तरह बौद्धके मतमें हेतु, उदाहरण और उपनय ये तीन अवयघध अनुमानके लिए आवश्यक होते हैं । बे प्रतिज्ञाकों आवश्यक नहीं मानते । क्योंकि केवल प्रतिज्ञाके प्रयोगसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती और प्रस्ताव आदिसे उसका विपय क्लात हो जाता है। किन्तु यदि प्रतिज्ञाका शब्दोंसे निर्देश नहीं किया जाता है, तो हेतु किसमें साध्यकी सिद्धि करेगा ? तथा उसके पक्षघर्मत्व-पक्षमें रहनेका स्वरूप कैसे मधित होगा ? तथा चार्य घूसवान्‌! इस उपनय-उपसंहार घाक्यमें अय॑? शब्दके द्वारा किसका बोध होगा ? यदि हेतुको कहकर उसका समर्थन किया जाता है तो प्तिज्षाके श्रयोग करनेमें क्यों हिंचक होती है? अतः साध्य धर्मके आधारविपयक संदेहको हटानेके लिए पक्षका प्रयोग आवश्यक है। 'लैयायिक अनुमानके शतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगसन ये पाँच अवयच सानते हैं । बाद्धू प्रतिज्ञाके प्रयोगको अनावश्यक कहकर उसके उपसंहार रूप निगमनका खण्डन करते हैं। बस्तुतः साध्यकी सिद्धिके लिए जिसकी जहाँ सिद्धि करना हे और जिसके द्वारा सिद्धि करना है उन प्रतिज्ञा और हेतुके सिचाय किसी तीसरे अवयचबकी कोई आवश्यकता ही नहीं है। पक्षमें हेतुके उपसंहारकों उपनय तथा प्रतिज्ञाके उपसंहारको निगमन कहते हैं । वे केवछ वाक्यसोन्दर्य या कही हुईं वस्तुके दृदी-करणके लिए भले ही उपयोगी हो, पर अनुमानके अत्यावश्यक अंग नहीं हो सकते। अतः धर्मी, साध्य और साधन अथवा असेद विवक्षार्म पक्ष और हेतु ये दो ही अनुमानके अंग हैं। धर्मी--धर्मी कहीं अमाणसे सिद्ध होता है कहीं विकल्पसे और कहीं प्रमाण जौर विकटप दोनोंसे । अस्तित्व या नास्तित्व साध्य रहनेपर धर्सी विकल्पसिद्ध होता है, क्योंकि सत्ता था असत्ताकी सिद्धिके पहले धर्मीकी केवल प्रतीति ही होती है, उससे प्रमाणसिद्धता नहीं होती। धूमादिसे अग्नि आदिकी सिद्धि करते ससय घर्सी प्रसाणसिद्ध है। सम्पूर्ण शब्दोंम अनित्यत्व सिद्ध करनेके समय चूंकि वर्तमान शब्द अत्यक्ष सिद्ध है ओर अतीत, अनागत शब्द विकव्प सिद्ध हैं, अतः शब्द धर्मी उसयसिद्ध होता है । बोद अनुमानका विषय कठिपत सामान्य मानते हैं, वास्तविक खलक्षण नहीं। धर्म और धर्मी यह व्यवहार भी उनके सतसे काह्पनिक है। थाचार्य दिगूनागने कहा हे*.कि समस्त अनुमान अनुमेय १२ प्र० बा० ३1२६ । २ न्यायस्‌० ११३२ ३ देखो प्र० वा० स्वयू० पृ० २४ |




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