तत्त्वार्थवृत्ति | Tattwarthawritti

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Tattwarthawritti by महेन्द्रकुमार जैन - Mahendrakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ वन्वतत्त्वनिरुपण २५ ध विशेष ज्ञान अपेक्षित है। शरीर स्वय पुदुगगर्लापड है। यह चेतनक ससग्गसे चेतनायमान हो रहा है । जगतमे रूप रस गन्व और स्पर्णवाले यावत््‌ पदार्थ पौदूगलिक हे। पृथिवी जरू अग्नि वायु सभी पौद्गल्िक है । इनमें किसीमे कोई गुण उद्भूत रहता हैं किसीमे कोई गुण ॥ अग्निमे रस अनुद्भूत है, वायुमे रूप अंदर है जलमे गन्व न है । प्र, ये सब विभिन्न जातीय द्रव्य नही है किन्तु एक पुद्गरूद्रव्य ही है । ग॒ब्द, प्रका, छाया, अन्धकार आदि पुदुगल स्कन्चकी पर्याय हैँ। विशेष्त भुमुक्षुक लिए यह जानना जरूरी है कि जरीर पुदूगल है और आत्मा इससे पृथक्‌ है । यद्यपि आज अशुद्ध वजामे आत्माका ९९ भलितत मिका और प्रकाश गरीराबीन है। शरीरके पु्जकि विगडते ही वर्तमान ज्ञानविकास स्क जाता है और घरीरके नाथ होनेपर वर्तमानशक्तियाँ प्राय समाप्त हो जाती है फिर भी आत्मा स्वतन्त्र और घरीरके अति- रिक्त भी उसका अस्तित्व परछोकके कारण सिद्ध है। आत्मा अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके अनुसार वर्तमान स्थूछ शारीरक नष्ट हो जानेपर भी दूसरे स्थूल शरीरको धारण कर लेता है । आज आत्माके सात्विक राजस या तामस सभी प्रकारके विचारया सस्कार शरीरकी स्थितिके अनुसार विकसित होते हे । अत मुमुक्षु- के लिए इस जरीर पृद्गलकी भ्रकृतिका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है जिससे वह इसका उपयोग आत्मविकासमे कर सके, ह्ासमे नहीं। यदि उत्तेजक या अपथ्य आहार-विहार होता है तो कितना ही पवित्र विचार करनेका प्रयत्न किया जाय पर॒ सफलता नहीं मिल सकती । इसलिए बुरे सस्कार ओर विचारोका शमन करनेकें लिए या भ्ीण करनेके लिए उनके प्रवक निमित्तभूत शरीरकी स्थिति आदिका परिज्ञान करनाही होगा। जिन पर पदार्थोसे आत्माको विरक्‍्त होना है या उन्हें पर समझ- कर उनके परिणमन पर जो अनधिक्ृृत स्वामित्वके दुर्भाव आरोपित हे उन्हे नष्ठ करना है उस परका कुछ विशेष ज्ञान तो होना ही चाहिए, अन्यथा विरक्ति किससे होगी ? साराश यह कि जिसे वधन होता है और जिससे बधता है उन दोनो तत्त्वोका यथार्थ दर्शन हुए बिना बन्च परम्परा कट नही सकती । इस तत्त्वजानके बिना चारित्रकी ओर उत्साह ही नही हो सकता | चारित्रकी प्रेरणा विचारोसे ही मिलती है । बन्ध-बन्च दो पदार्थोके विशिष्ट सम्बन्धको कहते हूं। वन्ध दो प्रकारका है-एक भाववन्प और दूसरा द्रव्यवन्ध। जिन राग हेष मोह आदि विभावोसे कर्मवर्गणाओका वध होता है उत रागादि- भावोकों भाववध कहते हे और कर्मवर्गंगाओका आत्मप्रदेशोसे सम्बन्ध होना व्रव्यवन्ध कहलाता है । द्रव्यवन्ध आत्मा और पुद्गलका है । यह निश्चित है कि दो द्रव्योका सयोग ही द्रव्योका सयोग ही हो सकता है _तादात्म्य नहीं। - पुदुगलद्गव्यपरस्परमे बन्धको प्राप्त होते हे तो एक विशेष प्रकारके सयोगको ही पआप्त करते है। उनमें स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक रासायनिक मिश्रण होता है जिससे उस स्कन्‍्वके अन्तर्गत सभी परमाणुओकी पर्याय बदलती है गौर वे ऐसी स्थितिमे आ जाते है कि अमुक समय तक उन सबकी एफ जैसी ही पर्याएँ होती रहती हे। स्कन्धके रूप रसादिका व्यवहार तदल्तर्गंत परमाणुओके सुपरसादिपन्णिमन की औसतसे होता है । कभी कभी एक ही स्कन्वके अमुक अझ्षमे रूप रसादि अमुक प्रकारफे हो जाते है और दूसरी ओर दूसरे प्रकारके। एके ही आम स्कल्ध एक ओर पककर पीला मीठा और सुगन्पित हो जाता है तो दूसरी और हरा खट्टा और विलक्षण गन्धवाला बना रहता है। इससे स्पप्ट है कि स्वच्प- मे शिथिक या व्ढ़ू वन्धक अनुसार तदन्‍्तर्गत परमाणुओके परिणमनकी औसतसे सरूपरसादि व्यवहार होते हे । स्कन्‍्ध अपनेमे स्वतन्त्र कोई द्रव्य नही हैं। किन्तु चह अमुक परमाणुओं की विश्येपष जबरग ही हूँ। और अपने आधारभूत परमाणुओक अधीन ही उसकी दछ्षा रहती है। पुदुगछोके बन्धमे यही रासा- यनिकता है कि उस अवस्थामे उनका स्वतस्त विलक्षण परिणमन नहीं हो सकता किन्तु एक जैसा पन्णिमन होता रहता है । परल्तु आत्मा और कर्मपुद्यछोका ऐसा रासायनिक मिश्रण हो हो _नहीं सरता। सन वात जुदा है कि कर्मस्कन्धके आ जानेसे आत्माके परिणमनमे विलक्षणता आ जाय और आत्मा निमिन्से कर्मस्कत्धकी परिणति विलक्षण हो जाय पर इससे आत्मा और प्रुद्गलकर्मके बन्धको रासायनित सिश्ाए नहीं कह सकते । क्योकि जीव और कर्मके बन्धमे दोनोकी एक जैसी पर्याव नहीं होती । जीरी पर्याप शे-न




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