दर्शनाड्क | Darshanadk
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
96 MB
कुल पष्ठ :
390
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्तुय शरीरम्। इदमेव संसारदृक्षस््य मूलमूत॑ त्रह्मरन्त्र-
स्योध्वेस्थे महाशून्ये स्थितम। शिवस्थ शक्तो प्रतिफलन
एवं नहानाद:, विन्दृबीजयो: सट्ठट्रादस्यद्यमानों अतित्तु
भवति शक्तेश्व शिवे हत्युभयो: परसपरप्रतिफलनोदू- '
भूता या माया ततः सगांदिभूतो नादविन्दू आविभ-
बतः। अयमाविर्भावः आद्याशक्ते, प्रथम उन्मेपः विसगा-
स्यो वेदितव्य:। अत्रेव नादविन्द्वात्मना मृष्टेरइकुरो
अत्यते | विस्तगस्थानमिदं नित्यानसमयत्रिति शात्रेपु
असिद्धि:। [
बिन्दुभेदेन विन्दुवीजनादात्मना या द्िकोण-
«५ तर ,
आूमिराविभू ता सेब शब्दतद्मरूपा कुलकुएडलिनी वह्मण:
रणशरीरम् तस्याः शक्तिरूपतया कुलत्वप,तत्त्वत्रयत्य
कुरडलाकारयन्त्रऋपतया च कुरडलिनीट्म ! जगदुपा-
महानाद एवं शब्दत्द्मा
दानभूतानि सृक्मतत््वानि त्रिकोणादस्मान्रि:सृत्य
रखस्थ निम्तप्रदेशीप भालसध्यमारम्य मेरुस्थ-
क्रप्येन्तं सबत्र स्थितानि। त्रिप्वेतेपु दस्वेधु बिन्दु:
शिवात्मक: , बीज शक्त्यात्मक , नादरच उम्रयोर्ियः
र्
सम्रवाय इति वेद्विव्यय। विन्दुर्यमपरः कायरूप: ,
बीजज् 'अकथादि' रेखात्रयधटितनिखिलवर्णवल्ली-
समन्वितत्रिकोशात्मकम। विन्दना ज्ञोमकेण बीजे क्षुब्चे
नाद: संजायते | परविन्दोमिद्यमानाद् बिन्दुबीजयो-
झऋडद्धव: | अपरविन्दुना चुव्थाद् बीजान्नादस्योडद्भूव:--
इत्येकः कालः । पररिमिन बिन््दी शिवशक्त्योरविभागो
बतते , अपरबिन्दी ताबतू शिवांशस्य ग्राधान्यम्।
अविभक्ते परविन्दो इच्छादीनां शक्तीनामभिव्यक्ति-
जे भवति। बिन्दुभेदेन योउव्यक्तात्मा रवो जायते स
मा]
अऑरनमंगनमनागाणा. 7
ति महानादनादया विवेक: ' वादेडग्मिशझारादि-
बनते पर्वत शितों
ग्रायरतान काइलिखात्यना परि-
शुतः सन आशिनां देहमश्ये राजमानों बगहयेगावि-
भंवति
तार
दकारावजातामत्यकता सवा
उपासके साथिता मन्त्र: सुयुरय/अति-सूत्मत-
या शनितों वी पयलत प्रमादि नत्रव ल्ोचने
चे। मदानादपयनत तस्य गंतित सम्भग्नति बायारत्र
प्रवेशासम्भवात । महानादस्थ शव शझन्य टि-
रेका अहारन्प्रस्य मश्वस्थ इच्डाकाएयूते अव्यस्तादि-
नादे लीना तिप्रति। अपराकोटिलावदबादिनिरूयेण
श्रमध्यं भिल्रा मेरो प्रसरति। मेरोर्वअरेशों मूलाबार-
चक्के सेव कुरडल्याव्मना परिणता भव॒ति ! अक्ारादि
वर्ण मालासमन्धितं पृर्वाक्त बीजमस्थामंवः शक्ष्ती बि-
यमानतया भावनीयम् | ऊर्ध्याथः शक्तिदृवस्थ सन्धि-
खत परो बिन्दुभावनीय: | स एवं महाकाल, यत्र ख-
शक्त्या लिद्वितं श्रीगुरुवपु: योगिमिश्रिन्यते। महानाद-
रूपादादिप्रणवादेव हंसाख्यो प्रक्ृतिपुरुषो निःसरतः।
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एतावलयालोचनया सिद्धथति बदद्रतनये विस्दु-
नादकलादीनामन्ततश्रिच्छक्तेरेव विज्ञासहपत्वाद वें-
न्दबशरीरमपि विन्मयमेव ग्राह्ममिति | विन््दों: परावर-
भेदेन तच्छरीरस्य परत्वापरत्वविभागेडपि चिस्मयत्वस्य
, सब्र समानल्वम्। पेसर्गिकीकलारहस्यं विन्दुरह॒स्यं च
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* तथा च कंकालमालिनीवचनम--“तर्मिन् रे विसगे व निद्यानस्द निरश्ननम” इति
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