ये कथा रूप | Ye Katha Roop

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Ye Katha Roop by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# लुभी का पर घाँतू + [१ सर दूर हो जा मरे सामने से धर तेरा स्‍थान यहाँ गही उस वैध के घर में है। मैं मींचक रह गईं। जिस भादमी कौ नपुसकता का कर्सक भाते भौर शिसका गेंछ चप्ताते के सिए मैंने प्रपती परत्रिज मैतिकता भौर दुस्दम-स धरोर की बलि दी थी । उसी का मह स्पवहार ! यह बदला ? पर मैं रोई-मिडुमिड्राई नही ! मैंने संमसशर बस गर-पिपाक्ष से यहा दाद्टा कि मरा स्पात श्र कही है हो यही भौर इसी भर में है। भगर तुम निगाखना चआाइत हो हो समाझ क उमाने प्रपते पाप को स्वीकार करके ही मुप्त रस बैध् को सॉपता होगा । बड़ -बूड़ों ने मिस्तकर बा भते अहो कया तहाँ रबा दिया भौर झुछ दुपम पैसे देकर बैथ को कही जाइर मेज दिया। इसके बाद से मरी जिर्ययी इस कोई-मकोड़े से बहार मा मिस्त ने रहो । भवर मैं काफ़ी पड़ी शित्री होती तो जहां मी जाबर प्रपदा प” पास सेती | पर बैसा कोई विकल्प महोते से मुें भ्रपमान भौर उपज के इसो मरक में सड़ने का बाध्य होगा पढ़ा । हरे पिता में रु दिन के डाइ मुझ्तें फिर कमी भोईं बात नहीं की प्तौर मैंने भी उसका दिस जत्ताते में कमी कोई कतर गहीं छोड़ी । मरे पास डस नराषम से बदशा तैने का सौर उपाय भी तो गहीं रह पया बा। उ8£ मरमे पर भव मैं महसूद कर रही हू झि जैसे एल अषडूत अड़ा बोप मेरे मत पर छे हट गष्मा है जैसे मोत सै भी झ्यादा श्रौफसाक एक साया मेरे मत पर से हुट यया है। भाज सचमुच मैं लूए हू । मा छो चुप इखकुर मैंने उन्हें पीर से देखा | उसके बेहरे बी शर्सों का ठेनाप काष्दी दौसा पड़ गया शा ध्लोर उसदी प्रथराई भ्र|कों की डोर पर जैसे सु गय एुक कोटा सा प्लॉतू चमछ प्रायारा। छपी अमर आातो मेरी प्रांसों में एक शिविभ-सी चद्ाकौंद पैद। कर रही पी ।




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