राजस्थानी साहित्य का इतिहास | Rajasthani Sahity Ka Itihas

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Rajasthani Sahity Ka Itihas  by बी॰ एल॰ माली अशांत - B. L. Mali Ashant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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17 कहा जाता है। 19वी शत्ताब्दी तक दोनों एक जेंसी मादी जाती थी । परन्तु रावत सारस्वत डियल को भाषा स्वीकार नही करते । वे इसे एक काव्य-शेली ही मानते है। असलियत भी यही है कि डिंगल एक काव्यगत-शेली है। इस शंली में रचित ग्रंथों में प्रयुक्त शब्दों का एकत्रोकरण कर डिगल-कोश भी प्रकाशित हुए है। इनसे एक भ्रम सा पैदा हो गया है। झाम लोग कोश भाषा का ही जानते हैं, शेली के कोशों से उनका विश्वेष परिचय नही है । ऐसा भी हुआ है कि शैली शब्द कालान्तर में छूट गया श्रौर डिगल रह गई । जिसे डिंगल कहते-कहते भाषा भौर शैली का प्रन्तर मिट गया और जन साधारण लोग डिंगल को भाषा कहने लगे । डिगल में लिखने का मतलब डिगल शंली में लिखना न रहकर डिंगल भाषा का प्र्थ देने लगा। इसी से भाषा और शंली का प्रम पैदा हुमा । डॉ. एल. पी तेस्सितोरी डिंगल शब्द का पथ “अनियमित अथवा 'गंवारू! से लेते हैं । उनके मतानुसार, “ब्रजभाषा' परिमाजित थी भ्रौर साहित्य शास्त्र' के नियमों का अनुसरण करती थी, परन्तु डिगल इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र थी । इसी वजह से इसका यह नाम पड़ा । वे इसे पढ़े-लिखो की भाषा नही मानते । परन्तु तेस्सितोरी का मत स्वीकार नहीं किया जा सकता | प्रथम तो इसलिएं कि डिगल पढे-लिखे चारणों की भापा थी और चारण लोग “गवारू! नहीं थे। द्वितीय यह कि यह अनियमित भी नही थी। इसमें व्याकरण की विशुद्धता के साथ-साथ छन्द, रस, भ्रसंकार भ्रादि काव्यागों का उतना ही ध्यान रखा जाता था जिवना कि ब्रजभाषा की कविता में । बल्कि डिंगल के छन्दों मे शास्त्रीय नियमों का अत्यधिक (ध्यान रखा जाता । डिंगल अपनी विशिप्टता से इतनी चचित हुई झौर यह शैली भारतीय साहित्य की प्रमुख शैली बनी । श्री गजराज श्रोफा के मतानुसार, “डिगल में “ड” वर्ण का ज्यादा प्रयोग होता हैं। इसी वजह से पिंगल की तरह इसका नाम डिसल रखा गया | जिस तरह बिहारी की ल-कार अधान भाषा है उती तरह डिगल में 'ड' वर्ण प्रधान है ।” परन्तु श्रसलियत में, डिगल मे ऐसी कोई बाव नही है | दो-चार पद्मयो में 'डकार! ध्वनि की प्रधानता हो जाने से समस्त डिगल “ड-कार” प्रधान नहीं कही जा सकती । श्री प्रुस्पोत्तम स्वामी डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति 'डिम + गढ्ठ' शब्द से बताते है । 'डिम' का अर्थ हैँ-डमरू की ध्वनि और “गढ् का भ्थ वे गला! बताते है । उनका मानता है कि “डमरू की ध्वनि रणचंडी का आह्वान करतो है और वीरो को उत्साहित करने वाली है । डमरू वीर-रस के देवता महादेव का वाद्य है 1 गले से जो क॒दिता निकलकर डिमू-डिरू की तरह वोरों को उत्साह से भरदे/




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