श्रीमद्भागवद्गीता | Shrimad Bhagwad Deeta

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Shrimad Bhagwad Deeta by जयदयाल गोयन्दका - Jaydayal Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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% भन्न निवेदल + श्५ बढ़ जानेसे सम्मव है, कह्दी-कहीं इस तरहका दोष रह गया हो । भआशा है, विज्ञ पाठक इस प्रकारकी भूलेंकों घुधार ठेंगे और सुझे भी सूचना देनेकी कृपा करेगे । इस टीकाके लिखनेंमें मुझे कई पूज्य मह्यनुभावों, मित्रों एवं बन्घुओसे अमूल्य सहायता प्राप्त हुई है। आजकलकी परिपाटीके अनुप्तार उनके नार्मोका उछेख करना आवश्यक है, परन्तु मैं यदि ऐसा करने जाता हूँ तो प्रथम तो उनको कष्ट देता हूँ, दूसरे उन लोगोके साथ जैसा सम्बन्ध है उसे देखते उनकी बडाई करना अपनी ही बडाई करनेके समान है । इसलिये में उनमेंसे किसीके भी नामका उल्लेख न करके इतना ही कह देना पर्याप्त समझता हूँ कि वे लोग यदि प्तनोयोगके साथ इस कार्यमें सहयोग न देते तो यह टीका इस रूपमें कदाचित्‌ प्रकाशित न हो पाती | यह ठीका पहले विक्रम स॑० १९९६ में गीतातत्वाइ्ू! के रूपमें प्रकाशित हुईं थी। उस समय यह सकेत किया गया था कि पुस्तकरूपमें प्रकाशनके प्तमय भूलें छुधारनेकी चेष्टा की जा सकती है, उत्तके अनुस्तार कहीं भाषाकी दृश्सि और कहीं छपाईकी भूछोका सशोधन करनेकी इृष्टिसे एवं कहीं- कहीं नवीन भाषोंको प्रकट करनेके उद्देश्यसे भी छुघार किया गया है | परतु अब भी बहुत-सी नुटियोका रह जाना सम्भव है तथा किसी जगह दृष्टिदोषसे नयी मूलका हो जाना भी सम्भव है। अत, अन्तर्मे मेरी पुनः सबसे करबद्ध प्रार्थना है कि मेरी इस बालूचपतल्तापर सुधीजन प्रसन्न होकर मेरी भूलेंको छुधार के और मुझे सूचना देनेकी कृपा करें | विनीत-जयदयाल गोयन्दका “+++ 49४48: दीकाके सम्बन्धमें कुछ ज्ञातव्य बातें यह्द विस्तृत टीका गीताग्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित साधारण भाषाठीकाके आधारपर विक्रम संवत्‌ १९९६ में लिखी गयी और गीतातत्त्वाडूके रूपमें प्रकाशित की गयी थी। अत उप्तका पुत्तकरूपमें तत्तविनेचनी टीकाके नामसे प्रकाशन फिया जाता है | अतः यत्र-तत्र उसकी भाधामें सशोधन क्रिया गया है और किसी-किसी खल्में इलोकोंके अन्वयमें भी पसर्ि्तन किया गया है । भाव प्रायः वही खखा गया है । कहीं-कहीं कुछ नया भाव प्रकट करनेके उद्देश्यसे परिवर्तन भी किया गया है । गीतामें भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा अजुनके लिये जिन मिन्न- भिन्न सम्बोधनोंका प्रयोग हुआ है, उनका शब्दार्थ न देकर प्राय, उन-उन इलोकोंके अर्थमें “श्रीकृष्ण” तथा “अजुन! शब्दोंका ही प्रयोग किया गया है और कहीं-कहीं 'परन्तपः आदि शब्द ज्यो-के-त्यों रख दिये गये हैं । उनकी व्याख्या बहुत कम स्थछोपर की गयी है । जहाँ-जहाँ सम्बोधन किसी विशेष अमिप्रायकों घोतित करनेके लिये रक्खे गये गी० त० वि० ७-- प्रतीत हुए, केरल उन्हीं स्थलोमें उस अभिप्रायको प्रश्नोत्तरके रूपमें खोलनेकी चेश की गयी | टीकामें जहाँ अन्यान्य ग्रन्थोके उद्धरण दिये गये हैं, वहाँ उन ग्रन्थोका उल्लेख कृहीं-कहीँ सट्टेतरूपमें किया गया है---जैंसे उपनिषद्के लिये ८३०! । इसमें जिन- जिन प्रन्थेंसे सहायता छी गयी है, उनके नामोंकी तालिका पाठकोंकी सुविधाके लिये अलग दी गयी है । जहाँ ग्रन्यथका नाम न देकर केवल संख्या ही दी गयी है, उन खलोंको गीताका समझना चाहिये । अध्याय और इलोक-सख्याओंको सीधी लकीरसे प्रथक्‌ किया गया है | बायीं ओरकी अध्याय-सख्या और दाहिनी ओरकी इलोक-संख्या समझनी चाहिये।.. इलोकोंके भावकों खोलनेके लिये तथा वाक्योकी रचना- को आधुनिक भाषारैलीके अनुकूल बनानेके लिये टीकामें मूलसे अधिक शब्द मी यत्र-तत्र जोडे हैं और भाषाका प्रवाह न हूटे, इसलिये उन्हें कोष्ठकरमें नह्दीं रक्खा गया है। किसी-




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