तत्त्व चिन्तामणि भाग - 2 | Tattv Chintamani Bhag - 2

Tattv Chintamani Bhag - 2  by जयदयाल गोयन्दका - Jaydayal Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इसारा कतंब्य श्ण प्रमाद, अशान्ति और अन्यायकी ओर झुकना' तथा उनकी दृद्धिमें हेतु बनना ही आत्माका अधघ:पतन है ।” मनुष्यको निरग्तर आत्म- निरीक्षण करते हुए आत्माकी उन्नतिंके प्रयत्नमे लगना और अघ:पतनके प्रयलसे हटना चाहिये । संसारमें संग ही_उन्नति- अवनतिका प्रधान हेतु है, जो पुरुष भपनी उन्नति कर चुके हैं या उन्नतिके मागपर स्थित हैं, उनका संग आत्माकी उन्नति्में और जो गिरे हुए है या उत्तरोत्तर गिर रहे है, उनका संग आत्माकी अवनतिर्म - सद्दायक होता है । इसलिये सदा-सबंदा उत्तम पुरुपोका संग करना ही उचित है । उत्तम पुरुप उनकों समझना चाहिये जिनमें खाथ, अहंकार, दम्भ और क्रोध नहीं है, जो मान-बड़ाई या पूजा नहीं चाहते, जिनके आचरण परम पवित्र हैं, जिनको देखने और जिनकी वाणी छुननेसे परमात्मामें प्रेम और श्रद्धाकी वृद्धि होती है, हृदयमें शान्तिका ग्रादर्भव होता है और परमेश्वर, परलोक तथा सत्‌-शा्नोमें श्रद्धा उत्पन द्ोकर कल्याणकी भर झुकाव होता है । ऐसे परलोकगत और वर्तमान सत्पुरुषोंके उत्तम आचरणोको आदश मानकर उनका अनुकरण करना एव उनके आज्ञालुसार चलना तथा अपनी बुद्टिमें जो बात कल्याणकारक शान्तिप्रद और श्रेष्ठ प्रतीत हो उसीको काम- में छाना चाहिये ! मनु महाराज मी कहते हैं--- बेद। स्मृति। सदाचारः खस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुावंध प्राहम साक्षाद्रसस्थ ढक्षणम्‌ ॥ (२३१९) 'वेद, स्मृति, ' सप्पुस्घोके आचरण और जिसके आचरणसे




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