भक्तामर शतद्वयो | Bhaktamer Shatdvayi

Bhaktamer Shatdvayi by लालारामजी शास्त्री - Lalaramji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्तामर-शतडयी ९, अ००> >कनक-रान +५०-+-० अति म 3-०» -कन»ननमा ये सनम नमन क+332.. 2 पपनम«म«ष>जनमन न 3 अजज से 3 पनरनाक अफनननन- 2० बस अल + ही बन तल ननन«+बाना विभीनीन-नी--कमन ना विनय “कक >जमन»«-»क, सबोन विभो ! कथयितु ननु मत्यलछोके कस्ते क्षमः सुरजुरुप्रतिमा5पि बुध्या ॥ १४॥ अर्थ - हे भगवत आपके केवल शानादिक व्यापक सबको जानने दाले ) गुण परमोत्कष्ट द अनतदे, आत्मा के, पत्येक देशमें व्याप्त द्ठ ओर अपने पूर्ण परिच्केदेसे रु शोमित ६ | हे नाथ ! हे प्रभो ! इस मनुष्य छोकम चाहे कोई अपनी चुद्धिसे इन्द्रके गुरु चृहस्पतिके समान क्यों न हो, तथापि चह ध्यपके उन समस्तशणणों को कहने के लिये कभी समर्भ नहीं हो सकता ॥ १४ ॥ भक्तत्रा तथापि शिवदायक साहशोछज्ञः स्तोतुं य इच्छति जनः भवनांशहेतेः । कल्पान्तकारूपवनाद्ध तनक्रचऋ सोय॑ तरीतुमभिवांच्छति वान्तसिधुम्‌ १५ अर्थे-तथापि मोक्ष प्राप्त कराने वाले हे भगवन ! जो. कोई मेरे समान मूर्ख मन्ञुप्प अपने जन्मम्रण रूप संसार को नाश करने के लिये केवल भक्तिसे ही आपकी स्तुति करने की इच्छा करता है वह करप कालके अत समयफी ड




User Reviews

  • rakesh jain

    at 2020-11-24 11:46:03
    Rated : 6 out of 10 stars.
    the category of the book should be Religion/Jainism
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