श्री चतुर्विशति जिनस्तुति व श्री शान्तिसागर चरित्र | Shri Chaturvishati Jinstuti Shri Shantisagar Charitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीअजितनाथस्तुति । ९ लिये जो जीव इस धर्मको अपने हृदयमें धारण करलेते हैं वे मोक्षके सुखोंको अवश्य प्राप्त कर लेते हैं । भव्यात्मनां नाथ तवेब मूर्तिः प्रतिक्षणं पृण्यनिवंधिनी च । स्वगंप्रदात्री पनपान्यदात्री पापस्य हंच्री नरकागेला च ॥श॥। अथ- हे नाथ ! आपकी मूर्ती भव्य जीबोंको प्रतिक्षण पुण्य उत्पन्न करनेवाली है, सगे देनेवाली है, धन धान्य देने- वाली है, पापोंकों नाश करनेत्राली है ओर नरककों रोकनेके लिये अग्रल था बेंडाके समान हैं । ते बह्मवेत्ता सममित्रशत्रुः ध्यानाभिकर्मेन्धननाशकारी । त्वमेव मोक्षर्य सुखस्य दाता मयापि वंद्यो सततं प्रपृज्यः ॥७॥ अथे-- हे भगवन्‌ ! आप परम ब्रक्मके जाननेवाले हैं, शत्रुमित्र सबकी समान समझनेव्राले हैं, ध्यानरूपी अग्निसे कर्म- रूपी इंधनको जलानेवाले हैं ओर आप ही मोध्सुखके देने- वाले हैं इसीलिये हे नाथ, में मी आपकी सदा वंदना ढरता हूँ ओर सदा आपकी पूजा करता हूं ।




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