वक्रोक्तिजिविता | Vakroktijivita Series-180

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Vakroktijivita Series-180 by राधेश्याम मिश्र -radheshyam mishr

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about राधेश्याम मिश्र -radheshyam mishr

Add Infomation Aboutradheshyam mishr

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( २६ ) इसी वर्णविग्यासवक्रता के भ्रन्तर्गत इुन्‍्तह ने प्रादोन आच।यों दारा स्वीकृत झनुणस तथा यमछ अलझार का एवं भद्ठेड्ुट धारा स्वोकृत पपा, उपनागरिछा ओर प्राम्या पत्तियों का प्रहण देर लिया है | उन्हीं के रूपन दैं-- (के ) 'एतदेव वर्णविन्यासवकत्वे विरन्तने'वनुप्रास इति प्रसिदम्‌ 1 प० ६३ (ख ) 'वर्णच्छायानुसारेण गुणमागणुवर्तिनी । वृत्तिवैदिश्ययुक्तेति सैव प्रोक्ता चिरन्तनेः ॥7 ( २४४ ) ( गे ) मत नाम तोष्प्यस्या' प्ररार' परिदश्यते ४ ( २।६ ) २. पदपूवाद्धवक्॒ता कुन्तक वा पद से अमिप्राय है सुदन्त एवं तिडन्त पदों से, जैसा कि पाणिति ने कहा है--सुप्तिडन्त पदम्‌ ॥५ इसप्रह्नर स्पष्ट है कि पद में दो भाग हेते है-- एक भाग ते सुप्‌ भौर तिद रूप पराद है भर दूमरा प्रकृति रुप पूर्वार्द । उप्ती प्रहति हो! क्रम से प्रातिपदिक और घातु कहते हैं। प्रात्पिदिक शंबम्त होने पर पद बनता दे झौर घातु तिहस्त होने पर | अतः जो प्रातिपदिक अय्चा घातु के वैचि३० हे वारण श्ाने वाली रमंगोयता है उसे हम पदपूर्दार्यबकता के नाम में भभिद्दित करेंगे । कुम्तक ने हसझे भनेक प्रभेद प्रस्तुत किए है । दे इस प्ररार एँ-- ( के ) हुटिदचित्यवक्रता--जहोँ पर रूढि शब्द के द्वारा असम्भाष्य धर्म हो प्रस्तुत फरने के अमिप्राय का भाव प्रतीत होता है वहाँ, अगवा पदों पदार्थ मे रतने बाते हो किमी धर्मकी अद्भुत महिमा को अस्तुत करने को भाव प्रतौत होता है दहाँ रृटिवैचिम्यवकता होतो है। इस अडार के भाव को प्रतीति झदे पष्यमान पदार्य के या तो लेशेत्तर तिरस्तार झा प्रदिपादन करने को इच्छा से भा उपके स्वृहणोय उत्कर्प को प्रस्तुत करने दो इच्छा से कराता है। इसके उदाहरण रूप में वुल्तक ने आ्रानन्दवर्धन द्वारा “्र्दान्तरसद्कमितध्पच्यघ्वनि' झे उदाहरण रूप मैं घन्यालोझ प० १०९ पर उद्घत -+ ताला जाभन्ति गुणा जाठा दे सहिआ्एद्दि पेप्पन्ति 1 रइकिरणाणुग्गह्हझाइ द्ोन्ति कलाई क्मराइवा की उद्पृत किया है। इसके उन्होंने वत्ता को हृष्टि से मुख्य रूप से दो भेद किए हैं । पहला भेद व्दोँ होता है जहाँ कि खरय्ये वा हो अपने उरकर्प अथवा तिरहध्तार झ्रो इति- पादित करते हुए छवि द्वारा उपनिदद किया जाता है। तथा दूसरा भेद वो होता है अहाँ ड्ियो इमरे वक्ता की झदि दिसों के त्वप भपदा तिरप्कार वा




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now