उर्वशी : उपलब्धि और सीमा | Urvashi Uplabdhi Aur Sima

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषभारा का विशास कम श्र दिनरूर लारी-रेह को बापता का सझोलस तहीं समझते हैं। नारी क्षप के प्रत्वक भ्ध्यन में डे प्रह्त्ति के झिसी प्रममग का ही घौस्दएण निहारते ह। बप-चिजरस में मे ऐसे विशेषों का प्रयोग करते हैं, जो एडदम तिप्कशुप हैं। विह्ेपशों को पवित्रता के प्रति मे सअए हैं। दुखगीत में हीबे लिकते हैं-- ये मनीत कपोस्त सुखादों की. जितयमें सासी शोई महू. ससिनोन्सी भाँख चहाँ काजल श्म मु प्रलिति सोई कॉोपेश से भषरों को रमकर कद सात कर बस्य हुपा किस बिरड्ी ने दगु डी यह जवलिमा भांसुमों से बोई? यहाँ कपोन्न मगगीत बैसा है। कियमी सवचरा है। गलितीली भांण भे काजल बन मधु प्रशिषी का सांता कितता तिप्कसुप हैं। कॉपल से रंगा प्रया भ्रपर प्रवित्रता झा प्रकर्य ई | पुन देह की सतह शबसता प्रॉसु्भो से भुसकर विशरी है | इसी प्रकार “उर्षप्ती/ के शुप-चिदण में भी कवि एसे झपमार्तों का अमत कठा है गियसे मारता की बोड़ी भी बू नहीँ पाती है--- *गे छोचन शो किसी भस्म बय के शप् के दर्पण हैं, मे कपोश बितकी दृति में तैरठी किरण डया की से किस से भरए, साचता जितपर स्वयं मदन है, रोही है कामता बहा पड़ा पुकार करती है। ये प्रुत्ियाँ जिसमें उत्ुप्रों के भथुविष्दु फरते हैं, में बांहू विधु के प्रकाप की दो भगीन किरणी-शी 175 गह् सम्पूर्ण रुप चित्रण निप्कशुप है । उबसी कौ धाँख किसी भरप जय के जम का इपेए हैं। भस्प जय ही कुशृहण को जन्म देगे के शिए पर्याह ह्‌। फिर शसड़ा सम कैसा होपा ? भज भौ गहीं, पड उप्त सम को प्रतिक्याडित करे बाला इपेए ६ । मह पूश्मठा ही परिदता को जम्म देठी है । रपोप्त पर ३ इदबीतव ॥२। श्‌ प्रषधी २१1




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