मिट्टी और फूल | Mitti Aur Phool

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Mitti Aur Phool by नरेन्द्र शर्मा - Narendra sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लुच्घक बह नीलम के नग-सा लुग्धक, जगमगा रहा नभ में मलमल | बह मेरे श्रासोंसा छलछल, मेरे श्राइल मन-न्‍सा चचल |! फिसकी सुधि दम रही ! लुब्धक जगमगा रहा मम में कलमल ! घनश्याम यवतनिरा नित्य यही, है वही शूत्य नभ रगस्थक्ष, है खेल यही श्राखेट, यही शर, बढ्ी भीत सग--शिर केवल नाठक के नायकन्सा लुब्धशः जगमगा रहा नम में भलमल | यह तीन गाँठ का उसका शर, जो शर सब दिन जाता निष्फल, ऐसा ही मनका इच्छाशर, है लक्ष्य बनाया छायाछल ! वह नम का अआ्ाखेटी छुब्धक्, जगसगा रहा नभ मे मलमल। ली दीर्प श्वास सन्नाटे ने, जैसे वह करवट रहा बदल, यह मध्य निशा के 8 पहर शन्य', कद काँप उठा पल भर पीपल आगया ठोक सिर पर लुन्धए, जगमगा रहा नम में मलमल |! अब सिर गई है शीत रात, डरते डरते दिन रहा निक्‍ल | प्राची फेठिद्वरे कोने में पौ फ़टी-खुला आरक्त पटल!) सो गया नील नगन्सा छुब्धक, जगमगा रहा था जो ममल ।!




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