निग्गंथं पावयणं दसवेंआलियं | Nigth Pavan Dasveaaliya (samulth Tipani) Bhag -20

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Nigth Pavan Dasveaaliya (samulth Tipani) Bhag -20 by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूसिका.... १६ हरिभद्रसूरि ते जिन गाथाओ को भाष्यगत माना है, वे चूणि में हैं। इससे जान पडता है कि भाष्यकार चूर्णिकार के पूर्ववर्ती हैं । इसके बाद चूर्णियाँ लिखी गई हैं। अभी दो चणियाँ प्राप्त है। एक के कर्त्ता अगस्त्यर्सिह स्थविर है और दूसरी के कर्त्तों जिनदास अंदृत्तर ( वि० ७ वीं शताब्दी )। मुनि श्री पुण्यवविजयजी के मतानुसार अगस्त्यसिह की रर्णि का रचना-काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास है।' अगस्त्यर्सिह स्थविर ने अपनी चूणि में तत्त्वार्थसूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, ओघ निर्युक्ति, व्यवहार भाष्य, कठ्प भाष्य आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें अन्तिम रचनाएँ भाष्य हैं । उनके रचना-काल के आधार पर अगस्त्यसिह का समय पुन अन्वेषणीय है 1 अगस्त्यसि]ह ने पुस्तक रखने की औत्सर्गिक और आपवादिक--दोनो क्घियो की चर्चा की है ।* इस चर्चा का आरम्भ देवद्धिगणी ने आमम पुस्तकारूढ किए तब या उसके आस-पास हुआ होगा । अगस्त्यर्सिह यदि देवद्धिगणी के उत्तरवर्ती और जिनदास के पूर्ववर्ती हो तो इनका समय विक्रम की ५-६ वी छतादव्दी हो जाता है । इन चूर्णियों के अतिरिक्त कोई प्राकृत व्याख्या और रही है पर वह अब उपलब्ध नही है। उसके अवशेप हरिभद्रसूरि की टीका में “मिलते है 1? प्राकृत युग समास हुआ और सस्क्ृत युग आया । आगम की व्याख्याएँ सस्कृृत भाषा में लिखी जाने छगी । इस पर हरिभद्गयूरि ने असस्कृत में टीका लिखी । इनका समय विक्रम की आठवी शताब्दी है। यापनीय संघ के अपराजितसूरि ( या विजयाचार्य--विक्रम की आठवी दाताव्दी ) ने इसपर 'विजयोदया' नाम की टीका लिखी । इसका उल्लेख उन्होने स्वरचित आराधना की टीका में किया है ।* परन्तु वह अभी उपलब्ध नही है। हरिभद्रसुरि की टीका को आधार मान कर तिलकाचार्य (१३-१४ वीं शताब्दी) ने टीका, माणिक्यशेखर (१५ वी शताब्दी) ने निर्युक्ति-दीपिका तथा समयसुन्दर (विक्रम १६११) ने दीपिका, “विनयहस (विक्रम १५७३ ) ने ध्वति, रामचन्धसूरि (विक्रम १६७८) ने वार्तिक और पायचदन्धसूरि तथा धर्मसिंह मुनि (विक्रम १८ वी शताब्दी) ने गुजराती-राजस्थानी-मिश्रित भाषा में टब्बा लिखा । किन्तु इनमें कोई उल्लेखनीय नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। ये सब सामयिक उपयोगिता की दृष्टि से रचे गए है। इसकी महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ तीन ही है--दो चूर्णियाँ और तीसरी हारिभद्रीय घ्रत्ति । भगस्त्यर्सिह स्थविर की चूर्णि इन सब में प्राचीनतम है इसलिए वह सर्वाधिक मूल-स्पर्शी है। जिनदास महंत्तर अगस्त्यसिंह स्थविर के आस-पास भी चलते है और कद्दी-कही इनसे दूर भी चले जाते हैं । टीकाकार तो कही-कही बहुत दुर चले जाते हैं। इनका उल्लेख यथास्थान टिप्पणियों में किया गया है ।४ १--ब्हत्‌कल्प भसाष्य साग-६ आंग्ुख ए० ४। २--दुशवेकालिक १1१ अगस्त्य चूर्णि ; उबगरण संजमो--पोत्थएछ घेप्पतेछ असजमो महाधणसोल्लेछ वा दूसेछ, वज्जण तु सजमो, कारू पहुच्च चरणकरणट्ठ अव्वोछित्तिनिमित्त गेशहतल्स सजमो' भवति। ३--हा० टी० प० १६५ तथा घ बृरूव्याख्या--वेसादिगभावस्स मेहुण पीडिज्जइ, अणुवओगेण एसणाकरणे हिसा, पहुप्पायणे भननपुच्छण- अवलवणाउसघ्ववयणं, अणणुणणायवेसाइदंसणे अद॒त्तादाण, ममत्तकरणे परिग्गहों, एव सव्ववयपीडा, द॒व्वसासल्ने घुण संसयो उगिणक्खमणे त्ति। जिनदास चूरणि (४७० १७१ ) में इस आशय की जो पक्तियाँ हैं, वे इन पक्तियों से भिन्‍न है। जेंसे--“'जइ उशिणक्खसइ तो सब्बवया पीडिया भवति, अहबि ण उण्णिक्खसह् तोवि तग्गयमाणसस्स भावाओ मेहुण पीडिय॑ भवई, तरशयसाणसो य एसण न रक्‍्खइ, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणों पुच्छिजनइ--कि जोएसि ?, ताहे अवलवइ, ताद्दे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेद्दि णाणुण्णायाउत्तिकाड अद्िण्णादाणपीडा भवइ, तासु य मसत्त करेंतल्‍्स परिग्गहपीडा भवति ।” अगस्त्य चूणि की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं--तस्स पीडा वयाण ताछ गेयचित्तो रियन सोहदेतित्ति 'पाणातिवातो पुच्छितों कि जोएसित्ति ? अवलवति मुसावातो, अदत्तादाण सणणुण्णातो तित्थकरेह्विमिहुणे वि गयभावो मऊुच्छाए परिग्गहो वि। ४--गाथा ११९७ की चृत्ति : दशवेकालिकटीकायाँ श्री विजयोदयायां प्रपचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्‍्यते । ५--उदाहरण के लिए देखो छ० २६६ टि० १७७।




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