अग्निपरीक्षा | Agni Pariksha

Agni Pariksha by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रान्त श्राज एकान्त-रूप-सा पाकर तुकको , उठ, भाई, उठ, भेंट, श्रक में भर ले मुझको मैं वन मे जाकर हसा; किन्तु घर झाकर रोया » खोकर रोये सभी; भरत, मैं पाकर रोया !' झर्नि-परीक्षा के राम श्रौर भरत मिलते हैं-- श्राया श्रवनी पर श्रभ्नन्यान राघव-नक्ष्मण नीचे. उतरे , श्रा. मातृभूमि के झ्रचल में चेहरे निखरे उल्लास भरे , वालकवत्‌ दौड़ भरत भाई गिर गए राम के चरणो मे , खोए-खोए से. हृदय हुए पिछले सुमघुर सस्मरणो मे । श्रविराम राम पादाम्वुज को नयनाम्बूज से वे सीच रहे, वौहो मे भरकर झअवरज को अ्रग्रज ऊपर को खीच रहे , झर पर रकखा है वरद हस्त श्रत्यन्त स्नेह से गले लगा , भरतेश विरह सब भूल गए श्रस्तर में नव श्राह्वाद जगा । एक दुसरे के प्रति, दोनो भ्रनिमिष दृष्टि निहार रहे ; बहा-बहां पानी पलकों से मन का भार उत्तार रहे । मुखरित मोद, भावना मुखरित,किन्तु हो रही वाणी मौन , श्रनन्दाव्घि निमज्जित मानस, दोनो मे कम वेसी कौन ? साकेत के राम चरणों मे गिरे भरत को उठाकर बाह भरने का अनुरोध करते हैं तो भ्ररिनि-परीक्षा के राम--“'वाहो मे भरकर अवरज को श्रग्रज ऊपर को खींच रहे” यो अपनी वाहो मे उसे भरने को ही प्रयत्नकील है । दोनो ही काव्यो की भावाभिव्यजना अझपनी-झ्पनी स्थिति मे झ्रम्नतिम हैं । साकेत के राम कहते हैं कि तेरा पलडा भारी हैं । वह जमीन पर टिका है तो भर्नि-परीक्षा के राम, राज्य-ग्रहण के प्रसंग पर कहते हैं-- इस सारी जनता ने तुमको नैसर्गिक शासक माना है । हमने भी तेरा पूर्णतया अब सही रूप पहिचाना है । श्दे




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