श्रावक का अहिंसा व्रत | Shrawak Ka Ahinsa Vrat

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Shrawak Ka Ahinsa Vrat by जवाहरलालजी महाराज - Jawaharlalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्छ मित्रों ! जिस प्रकारका जीवन अभी आप बताते है, उसमेंकी उच्छुखलछता, त्रत धारण करनेपर आपको जरूर निकाछ देनी होगी पर उस उच्छूखछता के निका्न से आपकी हानि न होगी, छाम होगा। छाम आपको ही नहीं पर ससारको भी होगा। राज क अधिकांश लेगें में उच्छुलठता बढ़ रही है। उनकी यह उच्छूक्षलता उनके हरेक काम में नजर आती है। उच्छृबब्ता के कारण से ही आज सारे ससार में वर्णसकर कांये फैक रहे है। वर्णसकर कार्य से मेरा मतठब यह है कि जिस वर्णवालेको जो कार्य करना चाहिये उसे न कर मिन्न वणवाले के कार्य को स्वीकार करना । बर्णसकर कार्य दुनिया के लिए हानिकर है | ससारमें आज इतनी खैंचा- तानी करने पर भी छोग सुखपूर्वक अपना पेट नहीं भर सकते । इसके खास कारणोंमें से यह भी एक है| श्रीकृष्ण ने गीताके अदर-- श्रेयान्‌ स्वधर्मों विशुणः, पर धर्मौत्स्वनुप्ठिताव । स्वधर्म निधन श्रेय', पर धर्मों भयावह ।॥ “यदि अपने धर्ममे कुछ कठिनाईयें हों और दूसरे के घमम सरज़ता दिखलए देती हों तो भी अपने धर्मके लिए प्राण दे देने चाहिये-लिखा है ध्भपने धर्मके लिए प्राण दे देने चाहिये” क्‍या इसका मतझय यह है कि एक शराबी शराब पीना अपना धर्म समझता है शराब के बिना उसका कुछ भी काम नहीं चलता इससे उसे मर जाना चाहिये ? क्‍या एक आदमी पर-खत्री के साय मौज मजा उड़नेमें है धममं मानता है उसमे विना उसे चैन नहीं पडती, कोई इस दुष्कमतते छुड़ाने की कोशौश करे ते क्‍या उसे उसके विरुद्ध छडकर मर जाना चाहिये ? राजा प्रदेशी जिएके हाथ सदा खून से सने रहते थे, मनुष्योंकी हिंता करना ही उसने है




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