श्रीसूत्रकृतागड़म भाग - 3 | Shrisutrakritagadam Bhag - 3

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Shrisutrakritagadam Bhag - 3  by जवाहरलालजी महाराज - Jawaharlalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रयोजन आईत आगमेंमें श्रीमृत्रकृताज्ञ का बहुत उच्चस्थान है, यह आगम बड़ी उत्तमताके साथ पस्तुतचका निरूपण करता है, एक मात्र इस ग्रन्थके मननसेभी मनुष्य अपने जीवनको सफल चना सकता है। मुमुक्षु जीवेंकि लिये यह आगम परमोपयोगी है पर्तु इसका मूल अधै- मागधीमें और टीका प्रोढ़ संस्कृतमें रेची गई है इस लिये जो अर्धभागधी ओर संस्कृत नहीं जानते हैं वे इस आगमके छाभ से वश्ित रह जाते हैं। यथपि मुनि महात्माओंके द्वारा किये जानेवाले इस आगमके प्रवचनकी सहायतसे कभी कभी साधारण जनता को इसके अमूल्य ज्ञानांका लाभ प्राप्त होता है तथापि उससे उतना लाभ नहीं होता जैसाकि स्वयं इस प्रन्थके मनन करने से हो सकता है। एतदथ श्री खरे. स्था, जैन संप्रदायके आचार्य पृथ्यश्री १००८ श्रीजवाहिसलालजी महाराज के तच्वावधानमें पण्डित अम्विकादत्त ओोझाने इस प्रत्थंका सम्पादन कार्य किया है और साधारण जनताके लाभाध मूलकी छाया हिन्दी में अन्चयाथे, भावाथ तथा टीकाका अर्थ किया है। टीकाका जे अक्षरा: करनेकी चेश को गई है इसल्यि भाषासौष्व वैसा नहीं हो सका है जैसा प्रचलित पद्धतिको अपेक्षित है।फिरमी संस्कृत न जाननेवाले जिज्ञासु टीकाथकों पढ़कर टीकाके हमसे सर्वथा वच्चित नहीं रह सकते यह निश्चित है । यथपि यह कार्य रतामके चातुर्मास्यसे ही आरम्भ हुआ था तथापि सुविस्तृत ग्रन्थ होनेके कारण दो अध्यायांका अनुवाद पूज्यश्री के सतत १९९२ के साढ राजकोट चातु- मौस्यके समय समाप्त हुआ। पश्चात्‌ राजकोट श्रीसंघके सामने यह अनुवाद रखा गया ओर श्रीसंघको यह उपकारक प्रतीत हुआ | फछतः ऑीसघने अपनी उदारताका परिचय देते हुए बढूंदानिवासी शेठ श्रीछयनछालुजी साहिब मूंथाके प्रशेसनीय सहकारसे इसे मुद्रित कराकर जनताके करकमढेंमें अपण करनेका निश्चय किया | उपयुक्त रीतिके अनुसार प्रथम भागमें प्रारम्भ के दो अध्ययन पर्यन्‍त और दूसरे भागमें तीनसे नव अध्ययन तक ओर इस तृतीय भागमें दश से सोलह अध्ययन प्रकाशित कराकर प्रथम झुतस्कंध तीन भागेंमें समाप्त किया जाता है।




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