आयुर्वेदीय हितोपदेश | Ayourvaidiya Hitopdesh

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Ayourvaidiya Hitopdesh by रणजित देसाई - Ranjit Desai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आयुर्वेदीय-हितोपदेश १७ , सज्ञ' किया जाता है, चह सेरा मन (सदा अपने श्ौर सब के लिए) शुभ ही _ संकल्प करनेवाला हो । --ऋग्वेद, सामवेद, यज़ुर्वेद (तथा इनके श्रन्तर्गत श्रथर्ववेद ) जिसमें ऐसे स्थिर होकर रहते हे जैसे रथ की नाभि में श्ररे (प्रर्यात्‌ जो सर्व चिद्याओं का आश्षय-स्थान है) तया प्राणियों का चित्त नाम स्मरण की चुत्ति जिसमें ओोत (गुँथी हुई) है बह सेरा मन (सदा अपने श्रोर सब के लिए) शुभ ही सकल्प * करनेवाला हो । ः “-उत्तम सारयि जैसे रहिमियों (लगामो) की सहायता से अद +ं से श्रभी- प्सित गति कराता हैँ ऐसे ही इच्ध्रियों द्वारा जो पुरुषों को निगृहीत कर* श्रभीष्ट मार्ग पर लाता, है, जो हृदय में स्थित, श्रजिर (चपल) श्रौर श्रति वेंगशाली है, वह सेरा मत (सदा अपने झौर सब के लिए) शुभ ही सकलल्‍प करनेवाला हो । दरीररक्षोपदेश:ः टिप्पणी में प्रज्ञायराघ का लक्षण देते हुए कहा हैँ कि--शरीर के आरोग्य, पुरुषायुध की प्राप्ति तया श्रामरण शरीरावयवो की दुढता का श्रादर्श पूर्ण करने को जिम्मेदारी प्रत्येक पुरुष को स्वयं हैं। आचार्यों ने कण्ठ-रव से (स्पष्ट शब्दों में) क्रन्यत्र कहा है ।-- पुरुषो मतिमानात्मन. शारीरेप्येव योगश्षेमकरेपु अयतेत विशेषेण । आरीर॑ं हास्य मूलम्‌ , जरीरमूछशच पुरुषो भवति | भवति चात्र?-- सर्व॑मन्यत्‌ परित्यज्य शरीरमनुपालयेतू । तदभावे हि भावानां सर्वाभाव' शरीरिणाम्‌ ॥ श चू० नि० ६।६-७ --बुद्धिमान्‌ पुरुष को चाहिए कि जिन श्राहार-विहारादि से शरीर फा योगक्षेम हो--नताम, अ्रनागत व्याधियो की श्रनुत्पत्ति एवं बल-बर्णादि की ग्राप्ति है हो--उनके हो ज्ञान और श्रनुष्ठान का प्रयत्त करे ॥ फारण, शरीर ही इसका मूल है--घमे, श्र्य, काम ओर मोक्षरुप पुरुषा्ों के श्राचरण में शरीर हो १---पुरुप-जीवन को वेदिक वाढ्मय में यज्ञ कहा है। देखिये एक अमाण-- . पुरुपो बाव यज्न.--छान्दोग्योपनिंषदू अ० 3। ख० १६॥ --आयुर्वेद्‌ ने सी मन का एक कर्म अपना और इन्द्रियों का निम्नह बताया -है। यह ऊपर लिखा है । ३--सद्दिताकार अपने कथन के प्रमाण-रूप जहाँ पूर्व अन्धकार का वचन इडूत “करते हैं, वढाँ प्रथम 'मवति चात्र' इन पदों का उपयोग करते हैँ । हर




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