शील की नव बाड़ | Sheel Ki Nav Baad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
307
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीचन्द रामपुरिया - Shrichand Rampuriya
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आूमिका ..: ६ 75 5
;. मैयुत शब्द की व्यास्या इस प्रकार है : सतरी भौर पुरुष का युगल मिथुव कहचाता है। , मिथुन के भाव-विशेष अथवा कर्म-विशेष को
मैथुन कहते हैं। मैथुन ही प्त्नह्म है* 1 न के की के ब
आना पूज्यपाद ने विस्तार करते हुए लिखा है--मोह के उदय होने पर राग-परिणाम से रत्री और पुरुष में जो परस्पर संस्तर्श की
इच्छा होती है, वह् मिथुन है। झौर उसका कार्य भर्थात् संभोग-क्रिया मैथुन है। दोनों के पारस्परिक सर्व माव अथवा सर्व कर्म मैथुन नही,
राग-परिणाम के निमित्त से होनेवाली चेष्टा मैथुन है* 1
... श्री प्रकलब्ुदेव एक विशेष बात कहते हैं--हृस्त, पाद, पुद्वल संधट्टनादि से एक व्यक्ति का अब्रह्म सेवन भी मैथुन है। क्योकि यहाँ
'एक व्यक्ति ही मोहोदय से प्रकट हुए कामरूपी पिश्ञाच के संपर्क से दो हो जाता है और दो के कर्म को मंथुन कहने में कोई बाधा नहीं? । उर्होंने
भर भी कहा--इसी तरह पुरुष-पुरुष या स्त्री-ख्रो के बीच राग भाव से भनिष्ट चेप्टा भी अन्नह्म है* ।
उपर्युक्त विवेचन के साथ पाक्षिक सूत्र के विवेचन+ को जोड़ने से उपस्थ-संयम रूप ब्रह्मचय का श्र्थ होता है; मन-वचव-काय से तथा
'कृत-कारित-प्रनुमति रूप से देविक मानुपिक, तियंच सम्बन्धी सर्वे प्रकार के वैपयिक भाव और कर्मों से विरति। द्रव्य की अपेक्षा सजीव
अथवा निर्णीव किसी भी वस्तु से मंथुन-सेवत नही करना, क्षेत्र की दृष्टि से ऊर््व, अ्धो भ्रथवा तिर्यग लोक में कहीं भी मेथुन-सेवन नहीं करना,
काल की भ्पेक्षा दिन या रात में किसी भी समय मंयुन-सेवन नही करना भौर भाव की भ्रपेक्षा राग या द्वेंप किसी भी भावना से मंथुन का सेवन
भहीं करना ब्रह्मचय है 1 ः हक
महात्मा गांधी ने लिखा है--“मन, वाणी झौर काया से सम्पूर्ण इल्धियों का सदा सब विषयों में संयम ब्ह्मचर्य है। ग्रह्मचर्य का अ्र्थ
झआारीरिक संयम मात्र नही है बल्कि उसका पश्रर्थ है--सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार भौर मन-्बचन-कर्म से काम-बासना का त्यांग। दस
रूप मैं वह भारम-साक्षात्कार या ब्रद्ष-्प्राप्ति का सीधा और सच्चा मार्ग है* । 5
ब्रह्मचय की रक्षा के लिए सर्वेद्रिय सम की भ्रावश्यकता को जन्म में भी सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। वहाँ मन, बचन भौर काय से
ही नही पर झुत-कारित-पनुमोदन से भी काम-वासवा के त्याग को ब्रह्मचये की रक्षा के लिए परमावश्यक्र बतदाया है। स्थामीजी सर्वेद्धियजंय---
विपय-जय को एक परकोट की उपमा देते हुए कहते हैँ--
शब्द रूप गन्व रस फरस, भला भूडा हलका भारी सरस 1
या सूं राग घेष करणो नाहीं, सील रहसी एहवा कोट माही ॥
१०-तत्त्वार्थसूत्र ७.११ और साध्य :
प्रधुनममहा
स्त्रीपुंसयो्िधुनभावो मिथुनकर्म वा मैथुन तदमहा
२--तत्त्वार्भसून्न ७.१६ सर्वार्थसिद्धि
स्त्रीपुंसयोश्च चारिह्रमोहदोदये सति रागपरिणामाविष्दयो: परस्परस्पर्शन॑ प्रति इच्छा मिथुनस् । मिथुनस्थ कर्म मैथुनमित्युडयते । मे सर्द
कर्म ।... ...स्त्रीपुंसयो रागपरिणामनिमित्त बेप्टितं सैधुनमिति
३--तत्त्वार्थारतिक ७.१६,८ ६
पुकस्य द्वितीयोपपत्ती मैथुनत्वसिद्धे : --तद्ैवस्थापि पिशाचदशीशतरथात् सह्वितीयस्व॑ तपैरस्य_ चारित्मोहोद्याविष्युतकामपिशाप-
धश्बीकृतत्वात् सद्विवीयत्वसिद्धे मैथुनव्यवहाारसिद्धि:
४--तस्चार्थवार्तिक ७. १६५६
५०-पाक्षिकसूत्र :
से भेहुगे चडब्यिदे पच्चत तंजदा--दष्वभो सित्तनों काछूभो मावभो। दृष्वभोण मेहुणे रूवेस वा सवसहगएस वा। दिसभो ण मेहुगे
डद्ढलोए था अद्दोलोए वां तिरियिदोद् बा। फाछओो णं मेहुणे दिवा वा राओ था। भावओो णं, मेहुणे रागेण वा दौसेण वा
ई-यद्गर्य (पी?) ए० हे
> मर ी
User Reviews
No Reviews | Add Yours...