नीतिवाक्यामृतम् | Nitivakyamritam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
386
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about सुधीर कुमार गुप्त - Sudhir Kumar Gupt
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[27
व्यवस्था के प्रशइन को सोमदेंव के चिन्तन में केन्द्रीय स्थान प्राप्त है।
इसी कारण उसने राजनीति के बारे मे, ज्ञान के अन्य रूपो से श्रलग, श्रलगाव मे
नही सोचा । उनका मानना है कि जिस तरह तक-विज्ञान पराभौतिक तथा
अध्यात्म के ज्ञान से सम्बन्ध रखता है, श्रर्थशास्त्र, कृषि तथा व्यापार के
प्रवन्ध से सम्बन्ध रखता है तथा इस प्रकार अन्य सम्बन्ध है, उसी तरह राजनीति
के विज्ञान का सम्बन्ध सज्जनो की रक्षा तथा दुष्ट जनो को नियन्रित एवं अ्नुशासित
करने से है। उनकी पुस्तक मे श्रच्छी राजनीतिक व्यवस्था के विचारो के साथ
यथाथे मे क्या प्रचलित है, उस को जोडने का सचेत प्रयास किया गया है। उनका
मानना है कि अच्छे-बुरे तथा उचित-भनुचित के ज्ञान के श्रभाव से बढ़कर
प्राणियों का श्रौर कोई शत्रु नही है 110 अच्छाई के विचार को व्यवहार के साथ
जोडने की वजह से ही उन्होंने चार्वाक तथा लोकायत दर्शनो की आलोचना करते
हुए कहा कि 'वे सीमित सिद्धान्त है, क्योक्ति वे लोक-सुख को ही श्रन्तिम मानते
हैं ।। हालाकि सोमदेच की मान्यता थी कि कुछ परिस्थितियो में श्रमर हम इन
सिद्धान्तो का समर्थन करते हैं तो राज्य से श्रपराघो को दूर कर सकते हैं ॥11
प्रतः सोमदेव अ्रपने सम्मुख जिन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को रखते हैं, वे श्रमूर्त
स्तर पर राजनीतिदर्शन के बहुत सारे प्रश्न नही वरत् वे प्रश्न हैं, जिनका
राज्य के अन्दर प्रत्येक व्यक्ति को सामना करना पडता है। ये प्रश्न ' एक-दूमरे से
जुडे होते हैं, इनमे कुछ प्रश्न प्राथमिक होते हैं, तो कुछ द्वितीय श्रेणी के । कुछ
प्रश्न चेतन-प्रकृति से सम्बन्धित होते हैं, कुछ का सम्बन्ध सर्वोच्च-ब्रह्म-्से तो, कुछ
ग्रौर का अच्छी व्यवस्था की परिभाषा से होता है । ये वे महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जों
इस बात को पृष्ठभूमि तैयार करते हैं, कि कौनसे राजनीतिक कार्यों को करना
चाहिए ? सोमदेव भारत फ्रे प्रमुख धामिक चिन्तन के इस मौलिक सिद्धान्त को
स्वीकार करते हैं कि श्रात्मा परमात्मा का प्रतिविम्ब है 1 यह माया के श्रावरण
में रहता है तथा इससे मुक्ति एक बार फिर उसको | भ्रात्मा को] परमात्मा से जोड
देती है । हालाकि यह प्रश्न सोमदेव के लिए बहुत महत्त्व का नही है। यही कारण
है कि इस सम्पूर्ण विवेचन को थोडे से श्लोको मे खत्म कर दिया जाता है । उनकी
रुचि का प्रश्त तो सही कार्य (धर्म) का प्रश्त है श्रौर इसी प्रश्त का बाकी की
पुस्तक में विवेचन किया गया है 173
धर्म की श्रावश्यकता इसलिए उत्पन्न होती है कि सामान्यतः मानव जीवन
श्र विशेष रूप से राजनीतिक जीवन को अ्रच्छाई तथा बुराई, सुख तथा दुख के
मध्य तनाव के द्वारा परिभाषित किया जाता है। एक तरफ प्रत्येक व्यक्ति अपने
स्वय की सुख-प्राप्ति के लिए स्वायत्त एजेण्ट है, तो दूसरी तरफ वह उस जैसे श्रत्य
10 सोमदेव . नीतिवाक्यामृतमू, 10,45, 136
11 बही, 6.33-34
12 वही, 11.44, 5.12
13 बही, 5.13
User Reviews
No Reviews | Add Yours...