भारत - उद्धार अर्थात धर्म - विजय | Bharat - Uddhar Arthat Dharm - Vijay

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Bharat - Uddhar Arthat Dharm - Vijay by लाला किशन चंद - Lala Kishan Chand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्३्‌ घर्म-विजय ज॒ न्‍्मऊे बूटेमें हरियाली सदा रहती नहीं | जू वम मजलूमों का माना ख यहाता है कमी. खू गरीयों का भी लेकिन रंग छाता है कभो ॥ पहिला---उ्मा यह नया हुक्म अनथेका म्रल नहीं, ऐसा अन्यायी कानून बनाना क्या राजा और राज़ पुस्षोये लिये हिमा- रूय पर्वत जैसी भूल नही ? पाचवाँ--वह पपा दुफम्र है, चश कौनसा कानून है ? पदिला---यह कि ईइपर भक्तोंफे मकान खुदवा डालो, पूजा अर्चों का सामान दरियार्में चटाडालो, मालायें तोंड दो, ईश्वरपे रटने बालों को वे सरोे सामानी के रहम पर छोडदों - इस कदर भगवानफे भक्तोंसे दद जन होगया, इक मनुष्य भगयान का भी ज्ञानी दुश्मन होगया | एक जलका चुल्उुला इतना हवामें चद्रगया, जिसने टाथोाले बनाया उसके शिरसे वढ़गया ॥ दूसरा--हा, रात्रि आनेसे पहिछे सर्ये पर स्याही छाजानोी है, चरवादी अपने आनेसे पहिल्े अहेकार का विकार फीैलाती है -- भार फव्वारे पी गिरने से प्रथम अठला गई, पर छगे कीडी फे, समझो मौत उसकी आगई । पहिला--इसका प्रत्यक्ष धमाण भो मौजूद है, जिसतरह रूकडी के भीनरसे उत्पन्न दुआ घुन छज्टो को ही खोपला करये नष्ट कर देता है, उसा प्रकार हिरण्यकश्यप के हो चंशमें उत्पन्न हुजा उसका अपना पुत्र प्रहछाद घुन का त्तरह उसऊा सर्व नाश फरेगा -- जल जायगा फफ्तोला यद्द अपने ही दागसे, घरको छग्रेमी आग इस घर के चरागसे 1




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