बालशौरि रेड्डी का औपन्यासिक कृतित्व | Balashauri Reddy Ka Aupanyasik Krititv

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Balashauri Reddy Ka Aupanyasik Krititv by डॉ रवीन्द्र कुमार जैन - Dr. Ravindra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह बस्ती ये लोग | २४५ कपट से ग्रस्त नही है । ये दोनों अपनी-अपनी परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए एक स्वावलग्वी और सात्विक जीवन जीने का रास्ता खोजते रहते हैं । दूसरों को दुख दर्द को अपना समझना और सामाजिक न्यास के निरन्तर प्रयत्त करना इनको निजी विशेषता है। आइए इनके व्यवितत्व से साक्षात्कार करें-- गोविन्द गोविन्द एक निम्नवर्गीय परिवार का निर्धन, अशिक्षित, अनाड़ी, चेचल, साहसी एवं स्वाभिमानी ग्रामीण व्यक्ति है। वह एक ग्रामोण युवक को प्रायः सभी बूवियों एवं खामियों का श्रतिनिधित्व करता है। उपत्यास के प्रथम पृष्ठ पर ही उसकी पहली झलक मिलती है । 'एक बूढा दादा अपनी तोसरो औरत के साथ कही जा रहा था। एक आवारा ने दाँत दिखाते हुए दादा से पुछा--'दादा लड़की को कही ब्याह ।? दादा गुस्से से बोला, 'बरे वेबकुफ, यह लड़की नहीं, मेरी पत्नी है।! यह विजयवाड़ा स्टेशन के प्लेटफ़ार्म का दृश्य हैं।! बाबू टिकट कहाँ मिलता है ? यह्‌ पूछते हुए एक गेवार टिकट घर के पास आया । वहाँ एक साहब पहले दर्जे का टिकट * कठा कर णल्दी-जल्दी णाते हुए उस गेंवार से टकरा गया । दोनों नीचे गिर पढड़े। साहब के हाथ का चमड़े का बेग दूर जा गिरा । देहाती जल्दी-जल्दी उठा भौर वेग को अपने हाथ में ले उलद-पल्ट कर देखने लगा । इतने में वह साहब भी अपनी प्लूल झाड़ते हुए खड़ा हो गया । देहाती को बैग को लिये हुए देख साहव ने डॉटा--ऐ, यह तुम कया करते हो ।” देहाती नम्न भाव से बोला - साहब यह थैला आपका है, मैं मानता हूँ । लेकिन आप मुझे 'ऐ” से कहते हुए पुकार रहे हैं। मैं बेल या भेंस मही हैँ । भादमी हूँ। मेरा नाम गोविन्द है। मैं देहाती हैँ। किसी काम पर शहर जा रहा हूं ।'“लीजिए यह आपका थैला ।? इस आरम्भिक उद्धरण से ग्रोविन्द का बीज रूप परिचय प्राप्त हो जाता है। इसके तुरन्त बाद गोविन्द और टिकिट- बाबू का वार्तालाप ग्राम्य विनोद की स्थिति उत्पन्न करता है। रेल यात्रा की मुसीबतो का दृश्य उपस्थित. होता है । बिना टिकट यात्रा करने वालों की धांधली का , प्रभावक चित्रण है1 मद्रास, नगर में प्रवेश करते ही गोविन्द को सुटकैस उठाने और ढोने का “ दयानिधि सेठ ने चवननी का काम दिया । ग्रोविन्द को पाँच मिनट में चंबन्नी प्राप्त कर खुशी हुईं॥ वह चवन्तियों का ग्रुणः करके मन ही मन फूला न समाया 1 इसके बाद गोविन्द मूर मार्केट के निकट एक नम्बरों वाले जुए का दृश्य .देखता है। वह , देखते-देखते खेल को चालाकी समझ जाता है और स्वयं खेलकर काफी फायदा उठा लेता, है और टाटवाले का भंडाफोड भी कर देता है। महानगरीय जीवन का यह भी एक हृश्य है । इसके पश्चात्‌ गोविन्द का दयानिधि के अतिरिक्त उपन्यास की अनाथ नोयिका सृरोजा से परोक्ष परिचय होता है।सरोजा की माती धनलक्ष्मी के आतंकवादी




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