भारतीय संस्कृति आधार और परिवेश | Bharatiy Sanskriti Aadhar Aur Parivesh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
कलानाथ शास्त्री (जन्म : 15 जुलाई 1936) संस्कृत के जाने माने विद्वान,भाषाविद्, एवं बहुप्रकाशित लेखक हैं। आप राष्ट्रपति द्वारा वैदुष्य के लिए अलंकृत, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, संस्कृत अकादमी आदि से पुरस्कृत, अनेक उपाधियों से सम्मानित व कई भाषाओँ में ग्रंथों के रचयिता हैं। वे विश्वविख्यात साहित्यकार तथा संस्कृत के युगांतरकारी कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के ज्येष्ठ पुत्र हैं।
परिचय
कलानाथ शास्त्री का जन्म 15 जुलाई 1936 को जयपुर, राजस्थान, भारत में हुआ। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में साहित्याचार्य तथा राजस्थान विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. की उपाधियाँ सर्वोच
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ऋतु चक्र-वर्ष चक्र 7
मर यह विधान किया गया वि इस दिन वे समारोहपुवक भ्पने राज्य की सीमा
सांघ पर बाहर निबलें, वहां क्प्रपराजिता देवी था भौर वनत्पतिथा का विशेषकर
'शमी' (सेजडे) के दक्ष का पूजन बरें 4 इसोलिये इस दिन राज परिवारों मे पहले
विधि विधान से शस्त्र पूजन होता था, फिर इत्र के धोड़े उच्चे श्रदा का पूजन कर
युद्ध के बाहनों विशेषकर घोडो झौर हाथियों का पूजन होता था जो स्वय राजा के
द्वारा किया जाता था। फिर सपरिवार जुलूस के रूप में सीमा का उल्सलघन कर
शमीवरप का पूजन किया जाता था। बाद में सीमाल्लघन की रस्म को केवल इस
प्रकार क्रिया/वित किया जाने लगा कि राज्य वी सीमा के बाहुर निकलने की बजाय
राज गृह या नगर की सोमा के बाहर निकलना पर्याप्त माना जाने लगा । समस्त
देशी रियासतो में भ्रव तक ये प्रधाए चलती रही थीं। जयपुर राज्य मे भी विजय
दश्ममी मो जयपुर नरेश ये सब पूजा विधात सम्पन कर सायकाल भपने महल से
भामेर रोड़ के एक स्थल विशेष तक जुलूस के रूप मे जाते थे ।
मह सब विजय यात्रा या दिग्विजम के लिये सेना-प्रस्थान का प्रतीक था|
इस पव को मानव की प्रदम्य विजिगीपा महत्वावाक्षा भौर साहुसिक्ता का पव कहा
जा सकता है । झपराजय भौर शब्ित की साधना का दिवस था यहू। स्व० चद्रधर
शर्मा गुलेरी ने सब 1904 में एशिया की विजयदशमी” शीपकः कविता
'समालोचक” पत्र में लिसी थी जिसमे जापान की रूस पर विजय को एशिया का
सीमोल्लघन बता कर उसे बघाईं दी थी । उहोने लिखा था ---
* प्राचीन लोग विजया दिन मे बतावें,
सौमा उलाघ भपनी, रिपु धाम जावें।
जो शत्रु पास नहिं हो रिपु-चित्र ही को
संग्राम में हृत करे, बल इृद्धि जो हो ॥
इस दिन यदि सचमुच शत्रु पर चढाई सम्मव न भी हो तो शत्रु के चित्र को
ही मार गिरा कर रस्म पूरी को जतती थी । यदि कोई शत्रु न रहे या शातिकाल
में अषवा भ्रनाक्र्मण संधि के कारए किसी पर भी चढाई की जरूरत न हो तो क्या
किया जाए यह ग्रुलेरी जो ने नहीं बताया | बहरहाल यह पव था विजय यात्रा के
स्मरण का भौर भ्रपराजिता देवी की पूजा का।
रामचरित्र के साथ इसका सम्ब घ कंसे जुडाः यह भव तक रहस्य ही बना
हुभा है। इस पर विद्वानों ने भ्रटकलें भ्रवश्य लगाई हैं भौर विभि-न मत दिये है ।
यह तो स्पष्ट ही है कि राम रावण युद्ध इस देश के सास्कृतिक इतिहास के दो
महायुद्धों मे से एक है भौर प्राचीनतर है परत महाविजयो झोर अभ्रतिम योद्धा राम
की रावण पर विजय विजयदशमी को ही अवश्य हुई होगी, यह योजना स्वा-
भाविक थी 1 कम से कस विजयदशमी के दिन इस विजय का स्मरण करनाततो
झावश्यक माना ह्वी जाना चाहिये। महाभारत युद्ध के साथ भी विजयदशमी को जोड़ा
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