पथ की वंशी | Path Ki Vanshi

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Path Ki Vanshi by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रताम का हृदय दयाप्त वे प्रति भूधा से मर छठा । उसे महं तक गुस्सा प्राया कि बह उसके मुह पर बृक दे पर बह इठभा साहुठ रहीं कर सका । दृष्धन्यूदा-पा उठा घौर चल पड़ा | प्रमौ वह दरबाड तक पहुँचा ही नह्ठी वा कि इयास ने उसे फिर पुरारा 'सुनों। प्रभाम के तन-मन से सूभी कौ सहर दौड़ मई। “है ु्म्मूँ पांच सौ स्सपा दे सकता हूं किम्तु एक पर्त पर। प्रताम बैंसासी की मजबूती से गसस में शशाकर जस्वी-मल्दी अमात के पास प्रापा | उवावसी से बोला “मुझे घरापकौ हर संमज धर्द मजर है। शुम्द्रारे को भी चित्र दिरेंगे इत सबपर कापी राइट मेरा होगा उन्हें में द्वी बेच सरूया। उसझ्या सारा रुपया म छूगा। “मुझे मंजर है। “फिर कस प्रा जाना मकामण बगदा कर रजुंगा दस्तल्षत करके प्रपनी रकम से जागा। बहू इस तरह बोस रहा था जैसे कोई उपेक्षा से शाश बर खाहा। हूसरे दिन प्रभाग ले जब इृशल के धर में प्रयेश किया तब दयास एक सादारज्ष पृजती को कर्ज दे रहा पा । बैसाज़ी की (पट्‌-अट्‌' सुतकर दयाल भौतर मे बोसा “प्रनाम बाद गहीं पर रकू बाइए । प्रनाम पर दूटी-सी कुर्सी पर दैठ पया । कुर्सी ढी पीठ पे शमी दीबार एतगी गन्दी थी कि धनाम को धूणा हो डठी। पक छोके में कुछ सड़ हैए कप पड़ थे । बह इस कजूस पर पंमीरता से विचारता रहा डिसमें स्मापं का सामर सशरा रहा था ( छा रात-रिन प्रौरों की दौलत को घपने पर पं देखना शाहता था । जिसता इस जीवन सें मे कोई दोस्त या शौर न कोई फपता। महसता से वसे जिद थी ) बह कमी भर जीवन की कोमल मादतापों या नारी बे: प्रणय पद को लिकर अर्जा बहीँ करता पा । दमात का यदि घर्माधिक प्रिय विप्ए डोर साठो पद वा ऋण दना | बह ऋण को सेकर घंटों बिचारा




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