वाक्यपदीयम् | Vakyapadiyam

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महाराज भर्तृहरि लगभग 0 विक्रमी संवत के काल के हैं
ये महाराज विक्रमादित्य के बड़े भाई थे और पत्नी के विश्वासघात
के कारण इनमे वैराग्य उत्पन्न हुआ

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १७. वित्का और परिणाम की साक्षौमूता और पएम अझत रूप है। इसोलिए इसका निरोध भो सम्मद नहीं विनाश तो दूर कौ वात है। सिद्धान्तशैदों का मत दै कि परा, परवन्दो, मध्यमा और बैखरी नाम की चार बागियाँ है औए अह्म उनसे अलग है । परयन्ती आदि दोनों बाणियाँ परावस्था में परम से सगव होकर एक रूप में रिपर हैं। फिर वाचस्पति परमेशर अपनी ज्योति से अपने से अमित्न वस्तु समुदाय को नित्य भाष्तित करता है जिससे इच्छा उठती है और यही सष्टिक्रम का कारण बनता है । नागेशभट्ट ने सिद्धान्तशैव के इसी मत और 'ए 1 बाइमूछूचऋस्‍्था पश्यन्ती नामि- संस्थिता । हव्िस्था मध्यमा ज्ञेया पेखरी कण्ठदेशया' इस तन्त्रशास्त्र के मठ के आधार पर बाणी के चार भद्द परा, परश्यन्तो, मध्यमा और वैस़री मान लिया जो वास्तव में ब्याफरेंण सिद्धान्त के विरुद्ध है। क्‍योंकि आचाये भरेदरि ने बैद्वर्या मध्यमायाश्र पश्यन्त्याश्रैतद्ध- त्तम्‌। अनेकती्थभेदायास्त्रय्या वांचः पर॑ पदुझ् कारिका में वाणी के तीन ही भद स्वीकार झिए हैं। 'मारस्वती सुपमा के लेप में जिस विद्वान्‌ ने 'स्वरूपज्योतिरेवान्तः परावागमपायिनी' छारिका को वाक़्यपदीय को मानयर पमाण के रूप में उपस्थित कर परा बाणों को भर्वृदरि सम्मत कहने का दुःसाइस किया है उसने वाक्यपदीय को न देसकर ही देसा किया है अतः एम इस पिषय में कुछ नहीं कहेंगे। जिन छोगों ने 'चस्वारि बागू परिमिता पदानि! महामाष्यस्थ मन्त्र की नागेश को टौका के आधार पर वाणी के चार भेदों की कल्पना का समन जिया है उन्हें इसी मन्त्र का प्रदीप देखना चाहिए, जहाँ बैस्यट ने लिखा है कि-- 'यतुशों ( नामाझ्यातोपसर्गतिपातानाम 9 पदुजातानामेकेकस्थ चतु्थभार्य अलुष्या अवेयाकरणा बद॒न्ति । यधपि 'चतुर्णाम? की व्याख्या 'नामाख्यावोपसगंनिपातानाम्‌! इस मन्त्र कौ व्याख्या में कैय्पर ने नही लिसा है तथापि 'चत्वारि खह्मा' मन्त्र वो व्याख्या में माध्यकार ने र्वय कण्ठत ननामाए्यात' भादि को गणना की है, इस प्रकार नागेश कौ वागी के चार भेद स्वोकार करने बाला सिद्धास्त व्याकरण सिद्धान्त के सब्या विरुद्ध है । हों, एक बात यह रह जातो है कि वे वाणी के चार भाग कौन है जिनमें अवैयाकरण केवल चतुर्थ भाग बोलते है । इसका उत्तर दो अत्यन्त स्पष्ट है। एक तो यह कि अवेयाऊरण बागी के उस रूप वो जानते हं जिसमें छोक ब्यवद्ार होता है, शेष साधुत्वादि रूप नही जानने । दूसरा उत्तर यह द्वो सकता है कि-- (व्रेपादूध्व उदेव्‌ पुरुष: पादोस्पेह्ठा भवत्‌ छुनः। पादोस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्याम्इ्त दिवि॥ इस मन्त्र में वर्णित अध्य के चार अश का जो विवचन हे वही शब्द अझवादियों के मत में स॒स्यिर दे । वह बाऊ ससरकृत पाक्‌ है जिसके डान से पुण्य होता है. जिसका फ्ल है 'एकः दाब्द+ सम्यग्श्तः सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोके च छामधुग मव॒ति 1! द्वितीय-काण्ड का धतिपाद्य विषय हम यहीं द्वितीय वाण्ड के प्रतिप्राथ समस्त विषयों को चर्चा ने करके केदठ उसकी मुल्य दिचाएपारा का निर्देश मात्र देना उपयुक्त समझते ई 4




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