नाट्यशास्त्रम् | Naatyashastram

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Naatyashastram by बाबूलाल शुक्ल - Babulal Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६४) उनके द्वारा निर्मित व्याख्या से अध्येताओं को वचित हो जाना पडा। इसके अतिरिक्त इनके ढ1रा सशहीत नाट्यशास्त्र पर प्राप्त वाहिक आदि का एक विशिष्ट संग्रह भी अन्तिम खण्ड मे परिशिष्ट के रूप में दिये जाने की योजना थी | हन्त | यह सभी रह गया | अब नाटबविद्या को इन कार्यो के लिए किसी अन्य प्रतिभा की प्रतीक्षा है, जिससे कदाचित्‌ भविष्य में यह अभाव पूर्ण हो सकेगा । बड़ौदा से प्रकाशित नाटबशास्त्र के इस सस्करण में परिश्रमपूर्वक सभी पाठभेदों की लेकर भूमिका आदि के साथ पर्याप्त महत्वपूर्ण सामग्री दी गयी थी । जब पुत्र वाटरशास्त्र के प्रथम भाग का नवीन सस्करण श्री रामास्वामी शास्त्रीद्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ तो इसमे इन्होने कवि द्वारा निश्चित दो पाठो के परम्परागत अन्तर को अधिकाश रूप मे स्वीकार मही किया । इस्होंने नॉटनशास्त्र के मूलपाठो के निश्चय मे अभिनवभ्ारती के आधार को थी प्रमाणझूप में कम ही स्वीकृत किया । इनका तक था कि आचार्य अभिनवगुप्त के समय तक नाट्यशास्त्र में पर्याष्त प्रक्षिप्ताश मिल चुका था। जिसे स्वय अभिनवगुध्त ने ही साम्प्रदायिक पराठो की चर्चा के द्वारा स्वीकार किया है । बढोदा से प्रकाशित अभिनवभारती व्यास्या सहित नाठभशास्त्र के प्रथम खण्ड के तीन वर्ष पश्चात्‌ ही सन्‌ १६२६ में काशी सस्कृत ग्रथमाला से श्री प्रो बगुकनाथ शर्मा तथा प्रो० बलदेव उपाध्याय के द्वारा सम्पादित नाठय- शास्त्र का एक सस्करण प्रकाशित हुआ। इस सस्करण को सरस्वती-भवन पुस्तकालय, काशी में विद्यमान दो पूर्ण हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर सम्पादित किया गया था। वह मूल पाठ बम्बई तथा बड़ौदा सस्करणों से न केवल भिन्न ही था किन्तु यह नाटथशास्त्र की दीधघपाठ परम्परा का अनुसारी होने से महत्वपूर्ण भी था । काशी सस्करण के पराठो की भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने यद्यपि पर्याप्त आलोचना की, तथापि इसे इन ( सभी ) कारणों से पर्याप्त महत्व भी प्राप्त हुआ । सम्प्रति काशी सस्करण के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसका अध्यायक्रम तथा पाठ कदाचित्‌ मूल लाटब- शास्त्र के पाठो से अधिक सामीष्य लिये हुए माना जाए तो कुछ अनुचित न होगा । इसके पश्चात्‌ वम्बई के निर्णयसागर प्रेस से नाटयशास्त्र का भी द्वितीय सस्करण सन्‌ १६४३ में प्रकाशित हुआ जिसमे बड़ौदा के अभिनव- भारती सम्करण के दो खण्डो के तथा जे० ग्रामे के सस्क्ररण के पाठान्तरों का सग्रह भी जोडा गया था । इसी बीच नाट्यशास्त्र के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद तथा व्याख्यान ल्खिने के भी प्रयत्म आरभ हुए। सर्वप्रथम प्रो० भानु ने नाश्यशास्त्र के आरमस्भिक कुछ आदारयों का मराठो में भाषास्तर किया! सन्‌ १६४० के




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